शनिवार, 17 दिसंबर 2011

भ्रष्टाचार


                             यावतभ्रियेत जठरं तावत स्वत्वं हि देहिनाम
                              अधिकं योयोभिमन्यते स स्तेनो दंडमर्हती ?
                    जितने से पेट भर जाय उतने पर हि तुम्हारा अधिकार है |
                  उससे अधिक लोगे तो तुम चोर हो,तुम्हे दंड मिलना चाहिये |

हमारे यहाँ प्रकृति को माता माना गया है | जिस प्रकार बच्चा माँ का स्तनपान करता है -उतना ही दूध पीता है जितने की आवश्यकता होती है | पेट भर जाने के बाद माँ यदि जवरदस्ती दूध पिलाती है तो बच्चा मुँह फेर लेता है |हमें भी प्रकृति माता से उतना ही लेना चाहिये जितना हमारे लिए नितान्त आवश्यक है | उतना ही खाओ ताकि प्रकृति का भंडार सबके काम आ सके | कुछ लोगों ने ज्यादा खाया और कुछ भूखे रहे, कुछ लोग सुबह से शाम तक चर रहे हैं और कुछ लोगों भाग्य में एक समय का भोजन भी नहीं है इसका कारण क्या है ? हमारे यहाँ कहा गया है तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मतलब जितना जरुरत है उतना ही उपभोग करो | लेकिन लगता है लोग जैसे खाने के लिए जीते हैं,जीने के लिए नहीं खाते | और इसीका परिणाम दूसरों को भोगना पड़ता है और इसीका ही परिणाम है भ्रष्टाचार ||

भ्रष्टाचार इनकी नस नस में है
देश की जनता को धोखा देना इनकी खून में है,
धोकेवाज ये खानदानी है
जो इनकी जय जयकर करते हैं वे इनके पालतू कुत्ते हैं ||

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