बुधवार, 5 अगस्त 2015

स्वस्थ समाज निर्माण में व्यक्ति की भूमिका ............

  महर्षि  व्यास कहते हैं - यह समाज एक खेत है  . ठीक मेहनत करने पर खेत में  अच्छी फसल आती है . परन्तु जमीन से जो लिया गया है , वह किसी न किसी मार्ग से जमीन को वापस करना ही होगा . उसमे लापरवाही अथवा कंजूसी करने से नहीं चलेगा . परन्तु समाज रुपी खेत ऐसा है कि उसमें हल चलाये बिना ही बीज डाला जाये तो भी वह वैसा ही पड़ा नहीं रहता . परन्तु अच्छी  फसल प्राप्त करने के लिए जो कांटेदार झाड़ झंकाड़ है उनको साफ़ करके, हल आदि चला कर, पर्याप्त म्हणत करके, अच्छा बीज बोया जाना चाहिए . परिश्रम व्यर्थ नहीं जायेगा, यह विशवास रखिये . खेत में खाद डालने से वह स्वयं ही नहीं खा जाएगा वह तो दुगुनी फसल आपको ही देगा . समाज समृद्ध होगा तो आपके परस्पर प्रेम और सहकार्य से ही होगा . जहां परस्पर प्रेम है, सहकार्य है, उद्योग है, वहां समाज की समृद्धि तथा प्रतिष्ठा का प्रत्येक व्यक्ति को  लाभ  होगा . जिस प्रकार बीज में से वृक्ष निर्माण होता है, उसी प्रकार व्यक्ति में से समाज निर्माण होता है . बीज की सफलता वृक्ष बनने और उसमे से सैकड़ों बीजों के रूप में प्रकट होकर, अमर अखंड परम्परा निर्माण करने में है . उसी प्रकार व्यक्ति जीवन की सफलता समष्टि रूप में अजर अमर और विराट रूप धारण करने में है . बीज के जीवन की सफलता तभी हो सकती है जबकि उसको जमीन से, हवा से, जल से पोषक द्रव्य प्राप्त हुए हैं, उनको उस पेड़ की जड़ों, शाखाओं, पत्तों, फूलों आदि का पोषण करने के लिए ही उपयोग में लाएगा . उस बीज के विकास का यह मार्ग प्रकृति ने ही निर्माण किया है . उस मार्ग से न जाने की दुराग्रह  अगर बीज करेगा तो क्या होगा ? स्पष्ट ही है कि या तो वह सड़ जाएगा, नहीं तो थोड़े समय पश्चात उसे कीड़ा लग कर उसका चुटकी भर छिलका हवा में उड़ जायेगा . उसका अस्तित्व ही नहीं बचेगा . मनुष्य के जीवन के विषय में भी ठीक ऐसा ही है . मनुष्य के जीवन के विकास का मार्ग भी प्रकृति ने ही निर्माण किया है . व्यक्ति के जीवन का विकास वास्तव में तब होता है, जब वह अपने को मिले हुए सुख, वैभव, सम्मान और प्रतिष्ठा में अपने प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष सम्बंधित समाज घटको को हिस्सेदार बनाता है . इसी मार्ग से उसको और समाज को अपने बढ़ते हुए सुख, वैभव और सामर्थ्य का अनुभव होता है . अन्यथा यह मनुष्य का छोटा सा शरीर बढ़ेगा भी तो कहाँ तक बढ़ेगा ? और भोग करना भी चाहेगा तो कहाँ तक भोग सकेगा ?  उसके भोग को तो प्रकृति ने मर्यादित किया हुआ है . उसके शरीर में जो आत्मा है वह अमर्यादित है . उसका सामर्थ्य लाख गुना या इससे भी अधिक बढ़ सकता है .   .  
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