15 जनवरी को मकर संक्रांति पर्व का आगमन हो रहा है,जिसे कि तिल संक्रांति भी कहा जाता है। यही ऎसा एकमात्र पर्व है जिसे समूचे भारतवर्ष में मनाया जाता है, चाहे इसका नाम प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग हो और इसे मनाने के तरीके भी भिन्न हों। इसके माध्यम से हमें भारतवर्ष के सांस्कृतिक वैविधय की रंग-बिरंगी छटा देखने को मिलती है। मकर संक्रांति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है । इसी कारण यहां रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है, किंतु मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर बढने लगता है। जिससे कि दिन की बजाय रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा यहीं से ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ हो जाता है। अब दिन बड़ा होगा तो निश्चित रूप से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार घटने लगेगा। अत: मकर संक्रांति पर सूर्य के इस राशि परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्यशक्ति में वृद्धि होगी------यही जानकर इस देश के विभिन्न प्रान्तों में विविध रूपों में सूर्यदेव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जाती है।

अब दान की बात चली है तो एक बात विशेष रूप से कहना चाहूँगा। जैसा कि इस सनातन संस्कृ्ति को जानने वाला प्रत्येक व्यक्ति भली भांती परिचित है कि समस्त धार्मिक ग्रन्थों, शास्त्रों, पुराणों में दान की कैसी महिमा कही गई है। चाहे आप कोई भी धर्म ग्रन्थ उठा लीजिए या आप किसी धार्मिक कथा को पढ लीजिए आपको ये बात जरूर पढने को मिलेगी कि किसी पर्व विशेष पर ब्राह्मण को अमुक वस्तु का दान करने से इतना पुण्य मिलता है इत्यादि इत्यादि....यानि कि जन्म से लेकर मृ्त्यु प्रयन्त प्रत्येक अवसर पर किसी न किसी रूप में ब्राह्मण को दान देने पर जोर दिया जाता है।
प्रत्येक धर्म ग्रन्थ में सिर्फ ब्राह्मण को ही दान लेने का अधिकारी इसलिए कहा गया है क्यों कि प्राचीनकाल में ब्राह्मण वर्ग एक तपा हुआ, परखा हुआ, चरित्रवान और लोकसेवी जन समुदाय था, जिसका सारा समय शास्त्र अध्ययन, समाज को शिक्षित करने, धार्मिक कृ्त्यों एवं अन्य लोक हितार्थ कार्यों में ही व्यतीत हो जाता था। उनके व्यक्तिगत व्यय की सीमाऎं बिल्कुल न्यून हुआ करती थी ओर उनके सारे प्रयत्न समाज हित की योजनाएं संजोने में हुआ करते थे। इसलिए उसके जीवन निर्वाह का भार समाज के अन्य वर्गों पर डाल कर दान देने की एक व्यवस्था बनाई गई थी । उस जमाने में दान के लिए पात्र-कुपात्र की, उपयोगिता-अनुपयोगिता की चिन्ता किसी को नहीं करनी पडती थी। जो कुछ भी देना होता था, वो ब्राह्मण के हाथों में सौंप दिया जाता था और देने वाला भी उसे अपना कर्तव्य मान कर दिया करता था। तब ब्राह्मण को देने का अर्थ समाज के लिए----धर्म के लिए----सत्प्रवृ्तियों के अभिवर्धन के लिए देना ही माना जाता था। आज वैसी स्थिति नहीं रही........आज समाज का ढाँचा पूरी तरह से बदल चुका है-----आज ब्राह्मण वर्ग पर समाज को शिक्षित करने, ज्ञान विस्तार ओर मार्गदर्शन की कैसी भी जिम्मेवारी का कोई बोझ नहीं है कि उसकी उदरपूर्ती, उसके जीवन निर्वहण के बारे में समाज के अन्य वर्गों को सोचना पडे। इसलिए ब्राह्मण को दान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री न मानकर दान के लिए किसी निर्धन, लाचार, दीन-हीन प्राणी का चुनाव करें तो ही आपके द्वारा किया गया दान सही मायनों में पुण्यदायी हो सकता है।
आप सब को मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाऎँ........मिलजुल कर पर्व मनाएँ ओर खूब जी भर कर रेवडी,गुड,तिल इत्यादि का सेवन करें....साथ ही यथासामर्थ्य दान भी अवश्य करें। यदि मँहगाई इजाजत दे तो :)
बहुत अच्छी पोसट .. आपके इस पोस्ट से हमारी वार्ता समृद्ध हुई है .. आभार !!
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