भारतीय संसद पिछले दिनों आश्चर्यजनक कायापलट के दौर से गुजरी। पार्टी लाइन से ऊपर उठकर हर जाति और धर्म के सांसदों ने रूस के टोम्स्क में स्टेट प्रॉसिक्यूटर ऑफिस के भगवद्गीता पर उठाए गए कदम का एक सुर में विरोध किया। दरअसल, स्टेट प्रॉसिक्यूटर ऑफिस ने रूसी कोर्ट से कहा है कि वहां भगवद्गीता को बैन कर दिया जाए, क्योंकि यह 'कट्टरपंथी' किताब है।
लालू यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव जैसे समेत अन्य दिग्गजों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत के लिए खतरे के तौर पर उभरे इस मामले पर अपना जेनुइन गुस्सा जाहिर किया। इस पूरे शोर-शराबे पर सरकार की प्रतिक्रिया सबसे ज्यादा दिल को छू जाने वाली रही। सरकार ने तुरंत कहा कि इस गंभीर और अति महत्वपूर्ण मसले पर वह सभी सांसदों के साथ है और जल्द से जल्द वह रूसी अधिकारियों के सामने इस मसले को मजबूत तरीके से उठाएगी।
फिलहाल कई ज्वलंत मुद्दों की गिरफ्त में फंसी इस सरकार से किसी को भी सहानुभूति हो सकती है। लेकिन, यह होनी नहीं चाहिए। क्यों? क्योंकि, सरकार सच नहीं बोल रही है और अब सिर्फ अपनी खाल बचाने की कोशिश कर रही है। और इसीलिए, वह न सिर्फ संसद में हरेक को, बल्कि पूरे राष्ट्र को, वचन दे रही है कि वह मामले की गंभीरता को समझती है।
सचाई यह है कि यह सरकार, या कम से कम इस सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोग जैसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा, वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनंद शर्मा और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन रूस में भगवद्गीता के खिलाफ बने इस माहौल से काफी पहले 1 नवंबर 2011 से वाकिफ थे। 1 नवबंर 2011 को इस्कॉन की गवर्निंग बॉडी कमिश्नर गोपाल कृष्ण गोस्वामी ने हमारे प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेट्री पुलोक चटर्जी को इस मामले पर हर तरह की बारीकी बताते हुए चिट्ठी लिखी थी। इसकी कॉपी ऊपर दिए गए माननीयों को भी भेजी गई थी। (नीचे इमेज में देखें लेटर की कॉपी)
लेटर में इस मसले से जुड़ी सभी चीजें विस्तृत रूप से दी गई थीं। लेटर में सोनिया गांधी के 'धर्मनिरपेक्षता पर मजबूत और अटल सहयोग, बहुसंस्कृतिवाद और धार्मिक सहिष्णुता' का हवाला देते हुए अपील की गई कि जब नवंबर के दूसरे सप्ताह में आनंद शर्मा रूस आएंगे और फिर जब प्राइम मिनिस्टर दिसंबर में रूस के दौरे पर होंगे, उन्हें यह मसला अधिकारियों के सामने उठाना चाहिए। अब तक यह दोनों ही दौरे पूरे हो चुके हैं और कहने की जरूरत नहीं है कि दोनों में से किसी महानुभाव ने इसे अपने-अपने दौरे के दौरान नहीं उठाया।
मैं इस बहसबाजी में नहीं पड़ना चाहूंगा कि एक विदेशी राष्ट्र, खासतौर से एक ऐसा देश जिसके हमसे दोस्ताना संबंध रहे हों, को इस देश के बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं को तकलीफ पहुंचाने जैसे कदम पर विचार करना चाहिए या नहीं। मुझे यह भी लगता है कि गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो इसे धूमिल करने की कोशिशों के खिलाफ अपने पक्ष में खुद खड़ा होने में सक्षम है। और, हमें इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि दूसरे देश कर क्या रहे हैं? मैं ऐफिडेविट की अजीबोगरीब बातों पर भी कोई बहस नहीं करना चाहूंगा। सैंपल देखें- टोम्स्क स्टेट यूनिवर्सिटी की कंप्रिहेंसिव एक्सपर्ट एग्जामिनेशन कमिशन की 25/10/2010 को जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, किताब में धार्मिक सिद्धांतों की जिस तरह से व्याख्या की गई है, वह सांप्रदायिक घृणा भड़काती है, जाति, धर्म, भाषा, पैदाइश, नस्ल और राष्ट्रीयता के नाम पर मनुष्य के आत्मसम्मान पर चोट करती है। रिपो���्ट में 'भगवद्गीता' को ऐसी किताब के तौर पर माना गया है जो कट्टरपंथी है और जिसे सामाजिक संघर्ष पैदा करने या फूट डालने या फैलाने से रोकना जरूरी है।
इस किताब का सर्वसाधारण में बंटने से सामाजिक वैमनस्य पैदा हो सकता है और यह फैल सकता है। इसके बांटे जाने से कट्टरवादी गतिविधियों पर रोक लगाने के रशियन फेडरेशन के वर्तमान कानून का उल्लंघन भी होता है।'
इस सरकार से यह पूछे जाने की जरूरत है कि यह आखिर किस तरह काम करती है। जब आपको इस पूरे मामले पर काफी पहले ही बताया जा चुका था...दो महत्वपूर्ण पदासीन महानुभाव इसी देश में सरकारी काम के लिए गए थे, और बड़े से बड़े बिजनस कॉन्ट्रैक्ट उस देश को दे रहे थे... तब आपको इस मसले की नाजुकता का पता कैसे नहीं चला? जिस समय पार्लियामेंट में इस मसले पर शोर-शराबा हुआ, आपने तुरंत खड़े हो कर मामले पर बनावटी हैरानी और ऐसे गुस्सा जताया जैसे आप यह पहली बार सुन रहे हों और ऐसे प्रिटेंड किया जैसे इस मसले पर सबके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े हों।
आखिर क्यों? हमें ऐसी पाखंडी सरकार को बर्दाश्त कैसे कर रहे हैं?
लालू यादव, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव जैसे समेत अन्य दिग्गजों ने भारत की सांस्कृतिक विरासत के लिए खतरे के तौर पर उभरे इस मामले पर अपना जेनुइन गुस्सा जाहिर किया। इस पूरे शोर-शराबे पर सरकार की प्रतिक्रिया सबसे ज्यादा दिल को छू जाने वाली रही। सरकार ने तुरंत कहा कि इस गंभीर और अति महत्वपूर्ण मसले पर वह सभी सांसदों के साथ है और जल्द से जल्द वह रूसी अधिकारियों के सामने इस मसले को मजबूत तरीके से उठाएगी।
फिलहाल कई ज्वलंत मुद्दों की गिरफ्त में फंसी इस सरकार से किसी को भी सहानुभूति हो सकती है। लेकिन, यह होनी नहीं चाहिए। क्यों? क्योंकि, सरकार सच नहीं बोल रही है और अब सिर्फ अपनी खाल बचाने की कोशिश कर रही है। और इसीलिए, वह न सिर्फ संसद में हरेक को, बल्कि पूरे राष्ट्र को, वचन दे रही है कि वह मामले की गंभीरता को समझती है।
सचाई यह है कि यह सरकार, या कम से कम इस सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोग जैसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा, वाणिज्य और उद्योग मंत्री आनंद शर्मा और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन रूस में भगवद्गीता के खिलाफ बने इस माहौल से काफी पहले 1 नवंबर 2011 से वाकिफ थे। 1 नवबंर 2011 को इस्कॉन की गवर्निंग बॉडी कमिश्नर गोपाल कृष्ण गोस्वामी ने हमारे प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेट्री पुलोक चटर्जी को इस मामले पर हर तरह की बारीकी बताते हुए चिट्ठी लिखी थी। इसकी कॉपी ऊपर दिए गए माननीयों को भी भेजी गई थी। (नीचे इमेज में देखें लेटर की कॉपी)
लेटर में इस मसले से जुड़ी सभी चीजें विस्तृत रूप से दी गई थीं। लेटर में सोनिया गांधी के 'धर्मनिरपेक्षता पर मजबूत और अटल सहयोग, बहुसंस्कृतिवाद और धार्मिक सहिष्णुता' का हवाला देते हुए अपील की गई कि जब नवंबर के दूसरे सप्ताह में आनंद शर्मा रूस आएंगे और फिर जब प्राइम मिनिस्टर दिसंबर में रूस के दौरे पर होंगे, उन्हें यह मसला अधिकारियों के सामने उठाना चाहिए। अब तक यह दोनों ही दौरे पूरे हो चुके हैं और कहने की जरूरत नहीं है कि दोनों में से किसी महानुभाव ने इसे अपने-अपने दौरे के दौरान नहीं उठाया।
मैं इस बहसबाजी में नहीं पड़ना चाहूंगा कि एक विदेशी राष्ट्र, खासतौर से एक ऐसा देश जिसके हमसे दोस्ताना संबंध रहे हों, को इस देश के बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं को तकलीफ पहुंचाने जैसे कदम पर विचार करना चाहिए या नहीं। मुझे यह भी लगता है कि गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो इसे धूमिल करने की कोशिशों के खिलाफ अपने पक्ष में खुद खड़ा होने में सक्षम है। और, हमें इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि दूसरे देश कर क्या रहे हैं? मैं ऐफिडेविट की अजीबोगरीब बातों पर भी कोई बहस नहीं करना चाहूंगा। सैंपल देखें- टोम्स्क स्टेट यूनिवर्सिटी की कंप्रिहेंसिव एक्सपर्ट एग्जामिनेशन कमिशन की 25/10/2010 को जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, किताब में धार्मिक सिद्धांतों की जिस तरह से व्याख्या की गई है, वह सांप्रदायिक घृणा भड़काती है, जाति, धर्म, भाषा, पैदाइश, नस्ल और राष्ट्रीयता के नाम पर मनुष्य के आत्मसम्मान पर चोट करती है। रिपो���्ट में 'भगवद्गीता' को ऐसी किताब के तौर पर माना गया है जो कट्टरपंथी है और जिसे सामाजिक संघर्ष पैदा करने या फूट डालने या फैलाने से रोकना जरूरी है।
इस किताब का सर्वसाधारण में बंटने से सामाजिक वैमनस्य पैदा हो सकता है और यह फैल सकता है। इसके बांटे जाने से कट्टरवादी गतिविधियों पर रोक लगाने के रशियन फेडरेशन के वर्तमान कानून का उल्लंघन भी होता है।'
इस सरकार से यह पूछे जाने की जरूरत है कि यह आखिर किस तरह काम करती है। जब आपको इस पूरे मामले पर काफी पहले ही बताया जा चुका था...दो महत्वपूर्ण पदासीन महानुभाव इसी देश में सरकारी काम के लिए गए थे, और बड़े से बड़े बिजनस कॉन्ट्रैक्ट उस देश को दे रहे थे... तब आपको इस मसले की नाजुकता का पता कैसे नहीं चला? जिस समय पार्लियामेंट में इस मसले पर शोर-शराबा हुआ, आपने तुरंत खड़े हो कर मामले पर बनावटी हैरानी और ऐसे गुस्सा जताया जैसे आप यह पहली बार सुन रहे हों और ऐसे प्रिटेंड किया जैसे इस मसले पर सबके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े हों।
आखिर क्यों? हमें ऐसी पाखंडी सरकार को बर्दाश्त कैसे कर रहे हैं?
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