राष्ट्र और धर्म
भारतीय राष्ट्र के स्वरुप के बिषय में, इस युग के दो महान चिंतकों के बिचार मननीय है.
अमेरिका से वापिस आने के बाद स्वामी विवेकानंद ने भारत भ्रमण किया.इस प्रवास के दौरान पंबन नगर में भाषण देते हुए उन्होंने कहा :- The bake bone of our nationanal life is naither politics nor military power, it is dharma and dharma only....
इसी प्रवास में उन्होंने मद्रास में कहा :- Religion(Dharma) is the key of the entire music of our national life and if any nation throws away its vitality it is doomed to die.
दुसरे व्यक्ति महान राष्ट्रवादी, क्रन्तिकारी,दार्शनिक योगिराज अरविन्द घोष ने कारावास से मुक्त होने के पश्चात कलकत्ता के उत्तरपाड़ा में दिये अपने भाषण में कहा:- राष्ट्रीयता कोई राजनीति नहीं, न वो सैन्य शक्ति है और न यन्त्र शक्ति . यह एक आस्था है, बिस्वास है,धर्म है. मैं तो कहूँगा की सनातन धर्म ही हमारी राष्ट्रीयता है.उल्लेखनीय है कि स्वामी विवेकानंद सभी धर्मो और विश्वासों का समान रूप से आदर करते थे.उनकी उदारता कल्पनातीत थी.
भारत तो क्या बिश्व में किसी व्यक्ति में भी यह साहस न होगा कि वह इनमे से किसी पर भी संकुचित्त्ता अथबा कट्टरता का आरोप लगा सके.
इन दो विचारकों ने, यदि धर्म को राष्ट्रीयता का पर्याय माना है तो निश्चित ही धर्म एक ऐसा व्यापक तत्व होना चाहिए जिसकी परिधि में, हर देश भक्त और राष्ट्रभक्त भारतवासी, स्वयं को पा सके. निश्चित ही उन महानुभाबों के मन में, भारत में रहने बाले व्यक्ति को, राष्ट्रीय बनने हेतु धर्म परिबर्तन करना आबश्यक होने की कल्पना नहीं थी, और निश्चित ही यह भारत में रहने बाले मुस्लिम और क्रिस्चियन बंधुओं को राष्ट्रीयता से बंचित रखना चाहते थे.
अतः जिस धर्म को उन्होंने राष्ट्रीयता का पर्याय माना है उसका विवेचना करना आबश्यक है. यह वो धर्म है जो इस धरती से हजारों वर्ष से जुड़ा है और जिसे हम हिन्दू धर्म, भारतीय या सनातन धर्म कहते हैं.यह न किसी व्यक्ती विशेष की देन मानी जाती है और न किसी ग्रन्थ में सीमित है.यह तो बास्ताब में मानब के श्रेष्ठ चिंतन व्यवहार और साधना के फल स्वरुप प्राप्त समाज की एक उपलब्धि है. यह उपलब्धि भारतीय समाज ने हजारों वर्षों के श्रेष्ठ चिंतन तथा अनुभबों से अर्जित की है और इसमें गुण- ग्राह्यता की संभावना तथा तत्परता आज भी विद्यमान है.
मनुस्मृति में धर्म की परिभाषा इस प्रकार है:-
"धारणाद्दर्म इत्याहु धर्म धारयते प्रजाः
यस्याद्दारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः .
अर्थात समाज को धारण करने बाले, चिरंतन जीवन देने बाले आचार विचार ही धर्म है, जिन तत्व में चैतन्य रखने की क्ष्यमता है वे सभी धर्म के अंतर्गत है.
इस श्लोक से धर्म की व्यापकता का बोध होता है. धर्म की कोई सीमा नहीं.धर्म किसी भी कर्मकांड या औपचारिकता से बंधा हुआ नहीं है.आब धर्म की गतिशीलता के सम्बन्ध में महाभारत के इस श्लोक को देखिये:-
" धर्मोधर्मो भवति, धर्मोधर्मो उभी अपि
कारणोंदेशकालाश्य, देशकालो हि तादृशा "
अर्थात कभी - कभी, विशिष्ट समय तथा परिस्तिथि में धर्म भी अधर्म बन जाता है, धर्म तथा अधर्म ये दोनों मान्यताएं देश तथा काल पर ही अबलाम्बित है.वोट प्राप्ति के स्वार्थ से प्रेरित होकर धर्म शब्द को " मज़हब""रिलीजन""संप्रदाय" आदि के समकक्ष्य रख कर राजनीतिज्ञों ने इसकी अबमानना और अब्मुल्यन किया है.अपने खुले चिंतन के क्षण में कभी कभी सही बात निकल जाती है.
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