शनिवार 27 अगस्त लोकतंत्र के इतिहास में असाधारण जीत के दिन के रूप में इतिहास की किताबों में दर्ज किया जाएगा.
उस रोज लोकतंत्र की सर्वश्रेष्ठ परंपराओं के मुताबिक दोनों विरोधी खेमों की जीत हुई. एक ओर जहां अण्णा हजारे ने अपने ऊर्जापूर्ण उत्साह और स्पष्ट प्रतिबद्धता से राष्ट्र के दिल पर कब्जा कर लिया, वहीं संसद ने भी एक साहसपूर्ण प्रदर्शन से इसे प्रेरित किया जिससे यह फिर से तय हो गया कि अगर उसके सदस्यों को गड़बड़ करने वालों की बजाए उसका सदस्य होने का अवसर दिया जाता तो वह किस तरह की संस्था हो सकती थी.
टीम अण्णा और संसद ने जोरदार बहस में ऐसा समझौता किया जिसमें एक लोकपाल का वादा किया गया, जो भारत के सड़े-गले सत्ता प्रतिष्ठान के अस्तबलों की सफाई करने का बड़ा काम शुरू कर सकता है. लेकिन रात ढलने और सुबह होने के बाद रणभूमि पर अनिश्चितता का एक लंबा साया पड़ने लगा.
हालांकि समझैता हो गया था पर लोग मैदान से हटे नहीं थे. इन सबके बीच एक विस्फोटक सवाल हैः क्या उस रोज बाजी मारने के लिए उतारू राजनैतिक पार्टियां इस शांति का इस्तेमाल प्रस्तावित विधेयक को भुलाने, और बड़ी चतुराई के साथ उस संस्था को खोखला बनाने के लिए कर सकती हैं जिसे अण्णा हजारे ने एकदम त्रुटिरहित बनाने का सोचा था?
27 अगस्त को सदन की भावना का प्रस्ताव मेज थपथपाकर पारित कर दिया गया, इसके लिए ध्वनि मत नहीं कराया गया जैसा कि रिवाज है. इसमें सरकार और संसद के बच निकलने का एक अंतर्निहित विकल्प है जिससे टीम अण्णा के लोकपाल विधेयक संस्करण के साथ आसानी से भितराघात हो सकता है. प्रस्ताव में कहा गया हैः ''यह सदन निम्न मुद्दों पर सिद्धांततः सहमत हैः सिटीजंस चार्टर, उचित व्यवस्था के जरिए निचले स्तर की नौकरशाही को भी लोकपाल के अंदर रखा जाए और राज्यों में लोकायुक्त बनाना.''
ब्यौरे में पहला पेच ''सिद्धांततः'' शब्द डालना है. इसका मतलब यह है कि संसद टीम अण्णा की तीन मांगों को अमली जामा पहनाने के मामले में प्रतिबद्ध नहीं है. दूसरा छोटा पेच 'उचित व्यवस्था के जरिए' है, जो लोकपाल के दायरे में निचले स्तर की नौकरशाही को लाने से पहले लगाया गया है. दूसरे बिंदु भी हैं जिनसे टीम अण्णा का विधेयक नाजुक हो सकता है. प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के मामले में अब भी आम सहमति नहीं बनी है भले ही टीम अण्णा का मानना है, शायद समय से पहले, कि उसने यह लड़ाई जीत ली है.
इसके अलावा यह विवादास्पद मुद्दा भी है कि लोकपाल की नियुक्ति कौन करेगा. इस सवाल का भी जवाब नहीं दिया गया है कि सदन के भीतर सांसदों की हरकत लोकपाल की जांच का विषय होगी या नहीं-हजारे उन्हें जवाबदेह बनाना चाहते हैं, लेकिन सांसदों को इसमें दिलचस्पी नहीं है.
टीम अण्णा चाहती है कि सीबीआइ का भ्रष्टाचार विरोधी हिस्सा लोकपाल के अधीन हो. संसद शायद इसकी इजाजत न दे लेकिन लोकपाल को एक अलग टीम दे सकती है और उसकी कर्मचारियों की जरूरत को सरकार की मंजूरी का विषय बना सकती है.
क्या सांसद राष्ट्र से किए गए अण्णा हजारे के वादे के साथ भितरघात कर सकते हैं? अब इस विधेयक का भाग्य कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी की अध्यक्षता वाली कानून एवं न्याय पर संसद की स्थायी समिति के हवाले है. कांग्रेस ने हजारे की मांगों के प्रति अपनी ईमानदारी उस समय दिखाने की कोशिश की जब मनीष तिवारी खुद ही इस समिति से बाहर हो गए.
लुधियाना से कांग्रेस के सांसद तिवारी ने पहले अण्णा हजारे को ''सिर से पांव'' तक भ्रष्ट बताया और फिर बाद में इसके लिए खेद जताते हुए माफी मांगी. समिति के एक और सदस्य अमर सिंह, जिनके खिलाफ नोट के बदले वोट मामले में आरोपपत्र दाखिल किया जाना है, भी विधेयक पर विचार-विमर्श में हिस्सा नहीं लेंगे. इसके बावजूद राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव समेत 31 सदस्यों में कई लोग टीम अण्णा के संस्करण को कमजोर करने का प्रयास करेंगे.
एक ओर जहां हजारे के अनशन के बाद सिविल सोसाइटी विजेता के रूप में उभरी, वहीं सांसदों का सभ्य व्यवहार भी जीत गया. 27 अगस्त को देश की निगाहें टेलीविजन सेट पर टिकी हुई थीं. लोग क्रिकेट नहीं देख रहे थे. वे संसद की कार्यवाही देख रहे थे. मीडिया रिसर्च एजेंसी टैम के जुटाए आंकड़ों के मुताबिक, उस रोज समाचार चैनलों से प्रसारित 95 फीसदी सामग्री जन लोकपाल विधेयक पर बहस से जुड़ी थी.
भ्रष्टाचार के खिलाफ उदासीनता के लिए विशेष रूप से सरकार और सामान्य रूप से राजनैतिक वर्ग के खिलाफ 10 दिन के गुस्से के बाद भारत के लोगों को संसद की महत्वपूर्ण भूमिका का फिर से अंदाजा लग गया. 2010 में लोकसभा की केवल 282 घंटे कार्यवाही चली जबकि 2009 में 355 घंटे तक चली थी और उसी साल आम चुनाव हुआ था.
राज्यसभा की कार्यवाही 2009 में 321 घंटों के मुकाबले 2010 में 252 घंटे ही चली. 2010 का शीतकालीन सत्र यूं ही निकल गया क्योंकि सरकार ने 2जी घोटाले पर संयुक्त संसदीय समिति बनाने की मांग के आगे झुकने से इनकार कर दिया. संसद की हैसियत गर्त में चली गई थी लेकिन लोकपाल पर बहस ने उसकी छवि सुधार दी.
उस रोज संसद में दिलचस्प बहस हुई और विभिन्न दलों के सांसदों ने जबरदस्त हस्तक्षेप किया, अभिनेता ओम पुरी और एक्टिविस्ट किरण बेदी के अशिष्ट व्यंग्य को करारा जवाब दिया. पुरी और बेदी ने रामलीला मैदान में सांसदों को गंवार और अनपढ़ बताते हुए उनका मजाक उड़ाया था. अपने देहाती मूल पर गर्व करने वाले दो सांसदों ने शानदार भाषण दिया.
जद (यू) सांसद और राजग के संयोजक शरद यादव ने कहा, ''आंबेडकर और महात्मा गांधी जैसे लोगों की दूरदर्शिता के बिना मुझ जैसे लोगों को अपने जानवरों को भी चराने के लिए दिल्ली आने की इजाजत नहीं मिलती.'' लेकिन उन्होंने कांग्रेस के उन युवा सांसदों को बुजुर्गों वाली नसीहत दी, जो हकीकत से कट से गए लगते हैं. उन्होंने सियासत को विरासत में हासिल करने की बजाए जमीन से जुड़कर सियासत सीखने के लिए कहा.
यादव ने पूछा, ''सिर्फ इसलिए कि किसी के पिता नेता हैं तो यह पीढ़ी बदलाव का क्या विचार है?'' लालू प्रसाद यादव ने टीम अण्णा को सख्त चेतावनी दी, ''संसद सर्वोच्च है और इसके अधिकार से समझैता नहीं किया जा सकता.'' दूसरे सांसदों ने ज्यादा मेलमिलाप वाला रवैया अपनाया. भाजपा के युवा सांसद वरुण गांधी ने यह कहते हुए गंभीरता दिखाने की कोशिश की, ''हमारा कर्तव्य जनता की राय को जाहिर करना है, उसके बारे में फैसला देना या उसे निरस्त करना नहीं है.''
कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया मराठी में एक वाक्य से हजारे की ओर बढ़े. अरुण जेटली ने संसद में अपना बढ़िया फॉर्म बरकरार रखा और यह कहते हुए भाजपा के सबसे मजबूत सांसद के रूप में अपनी पहचान मजबूत की, ''भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी ताकत यह है कि हम विरोध प्रदर्शन करते हैं, हमारे यहां संकट आते हैं, हम संघर्ष करते हैं, लेकिन हममें लचीलेपन की जबरदस्त समझ है. हम हर संकट का समाधान निकालने में असाधारण परिपक्वता दिखाते हैं.''
टीम अण्णा को 26 अगस्त को संसद में कांग्रेस के भावी प्रमुख राहुल गांधी के हस्तक्षेप से भी चिंतित होना चाहिए. राहुल 27 अगस्त को मुख्य बहस में शामिल नहीं हो सके क्योंकि वे अपनी बीमार मां से मिलने चले गए थे.
राहुल का दखल संसदीय परंपरा के विरुद्ध था, जिसमें शून्य काल के दौरान लिखित भाषण की मनाही है. उनके हस्तक्षेप का मुख्य बिंदु थाः ''भारतीय चुनाव आयोग की तरह लोकपाल को संसद के प्रति जवाबदेह बनाकर इस बहस का दर्जा क्यों न उठाया जाए और लोकपाल को क्यों न मजबूत बनाया जाए?'' राहुल के सुझाव को देर करने की चाल माना जा रहा है जबकि उन्होंने इसे खेल बदलने वाला बताया था.
संवैधानिक संशोधन लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है क्योंकि इसके लिए संसद और राज्य विधानसभाओं की मंजूरी जरूरी होती है, ज्यादातर समय यह मुश्किल काम है. उन्होंने यह कहते हुए टीम अण्णा के खिलाफ सख्ती दिखाई, ''निर्वाचित सरकार की व्यवस्था से अलग ऐसा नीतिगत हस्तक्षेप लोकतंत्र के लिए खतरनाक परिपाटी बनाता है जो संसद की सर्वोच्चता की रक्षा के लिए बने उपायों को खत्म करने का प्रयास करता है.''
यह एक रोज पहले ही हजारे से प्रधानमंत्री के उत्सुक आग्रह के बिल्कुल उलट था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह कहते हुए उनसे अनशन खत्म करने का आग्रह किया था, ''आपकी जिंदगी बहुत कीमती है.'' प्रधानमंत्री की अपील का समर्थन करने वाली सुषमा स्वराज ने राहुल के भाषण की आलोचना की. उन्होंने कहा, ''एक ओर जहां प्रधानमंत्री ने एक रोज शासन कला का परिचय दिया, वहीं अगले ही रोज कांग्रेस महासचिव ने उस पर पानी फेर दिया.''
लोकपाल पर प्रधानमंत्री और राहुल का मतभेद सदन में उजागर हो गया. बताया जाता है कि यह मतभेद उससे भी ज्यादा है जितना राहुल के भाषण से लगता है. सूत्रों के मुताबिक, राहुल ने दरअसल भाषण पढ़ने से पहले उसे प्रधानमंत्री को दिखाया था. सूत्र ने बताया, ''प्रधानमंत्री ने उनसे सिविल सोसाइटी पर अपने हमले को कम करने के लिए कहा था.'' उनका हलका संस्करण भी टीम अण्णा के लिए आक्रामक था.
तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंद्योपाध्याय, जिन्होंने राहुल के भाषण को ''समझ्दारी भरा विचार'' करार दिया, को छोड़कर बहुत सांसदों को लगा कि राहुल का विचार गेम चेंजर (खेल बदलने वाला) है. दीपेंदर हुड्डा का कहना है, ''यह दोनों में से कुछ नहीं है. राहुल एक अतिरिक्त नियम का सुझाव दे रहे थे जिसे लोकपाल विधेयक को मजबूत बनाने के लिए जोड़ा जा सकता है.'' मधु गौड़ यक्षी कहते हैं, ''उन्होंने मांग से ज्यादा का वादा किया है.''
संसद की भावना वाले प्रस्ताव से पहले ज्यादातर समझैते संसद में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के कमरे में हुए. यहां तक कि परदे के पीछे चलने वाले समझैते भी नॉर्थ और साउथ ब्लॉक से संसद के दफ्तरों में स्थानांतरित हो गए थे.
वित्त मंत्री ने बयान की बारीकियां तैयार करने के लिए संसद के कुछ बेहतरीन विधि विशेषज्ञों को इकट्ठा किया था. वहां बैठक में दूसरे लोगों के अलावा विधि मंत्री सलमान खुर्शीद, दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल, गृह मंत्री पी. चिदंबरम और राज्यसभा में विपक्ष के नेता जेटली मौजूद थे. एक सांसद ने कहा, ''इन सबकी लीगल फीस इकट्ठा कर दें तो आपको प्रति घंटा 1,76,000 करोड़ रु. का बिल मिलेगा.'' साथ यह भी जड़ दिया, ''2जी घोटाले के आंकड़ों के साथ कोई मेल महज एक इत्तेफाक है.''
आखिर में कानूनी बारीकियां नहीं बल्कि राजनैतिक सूझ्बूझ से काम बना क्योंकि मुखर्जी ने बयान को खुद अंतिम रूप दिया. लेकिन सरकार के वकील मंत्रियों की बात मान ली गई. कथित तौर पर सिब्बल के आग्रह पर 'सिद्धांततः' शब्द जोड़ा गया. उन्होंने चेताया कि सरकार को ऐसा कोई वादा नहीं करना चाहिए जिसे वह निभा नहीं सके. बाद में स्वराज ने भी यही बात दोहराई. प्रस्ताव को संसद में पेश किए जाने से पहले उसे टीम अण्णा और विपक्ष ने मंजूरी दी.
शुरू में हजारे से वादा किया गया था कि प्रस्ताव को ध्वनि मत से पारित किया जाएगा लेकिन टीम अण्णा को मात देने के लिए यह राजनैतिक चालबाजी का एक और नमूना हो सकता है कि मुखर्जी ने उसे सदन में मेज थपथपाकर ही पारित करवा लिया. बाद में कांग्रेस के एक मंत्री ने माना कि वे ध्वनि मत का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे क्योंकि जद (यू), बसपा और द्रमुक जैसी पार्टियां जन लोकपाल विधेयक का समर्थन नहीं करतीं.
सोमवार को प्रश्नकाल के दौरान बीजद सांसद तथागत सत्पथी ने मजाक किया कि वे अपनी मेज थपथपाने से बहुत डरे हुए थे कि कहीं उसे गलती से प्रस्ताव न समझ लिया जाए. मुखर्जी की पार्टी ने एक बार फिर अपने को दुरुस्त कर लिया और उनके सिद्धांत को संसद में प्रोत्साहन मिला. कांग्रेस ने विपक्ष से बातचीत की. संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ल ने लालकृष्ण आडवाणी, स्वराज और जेटली को मुखर्जी तथा मनमोहन सिंह से मिलने के लिए राजी किया.
सबसे बढ़कर कांग्रेस की नई पीढ़ी सामने आ गई. युवा मंत्रियों का एक समूह, जिसे जी-5 करार दिया गया, मुखर्जी के कमरे में पहुंच गया. वे थे आर.पी.एन. सिंह, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट और सिंधिया. एक और सांसद संदीप दीक्षित फोन संभालकर टीम अण्णा के साथ समझैता कर रहे थे.
युवा सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्रों में हजारे के आंदोलन के साथ सरकार के अनाड़ियों जैसे व्यवहार किए जाने पर नकारात्मक प्रतिक्रिया से बहुत नाराज थे. वे अपने ऊपर मतदाताओं के दबाव से पार्टी नेतृत्व को अवगत कराना चाहते थे. उनमें से एक युवा मंत्री ने कहा, ''उस रोज हमने प्रणबदा के कमरे में राजनैतिक समझैते की कला का सबक सीखा.''
अगर टीम अण्णा यह उम्मीद करती है कि उनकी मांगें महज सिद्धांततः नहीं बल्कि वास्तव में पूरी हों तो उन्हें इन युवा सांसदों पर दबाव बनाए रखना होगा, जो कांग्रेस में प्रभावशाली समूह है. आंदोलनकारियों को भाजपा के निरंतर समर्थन की जरूरत होगी.
पार्टी ने 24 अगस्त तक जन लोकपाल विधेयक पर कोई रवैया नहीं अपनाया था जब उसने सर्वदलीय बैठक में हजारे का समर्थन करने का फैसला किया और सरकार से अपना लोकपाल विधेयक वापस लेने के लिए कहा. फिर अगले दिन भाजपा ने टीम अण्णा से संपर्क किया.
पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपेक्षाकृत कम प्रोफाइल वाले पार्टी महासचिव जयप्रकाश नड्ढा के मार्फत हजारे को एक पत्र भेजकर अपना रुख स्पष्ट किया. उसी रोज शाम 7.30 बजे भाजपा नेताओं ने रणनीति बनाने के लिए बैठक की. रात 9 बजे टीम अण्णा को आडवाणी के घर पर बैठक के लिए बुलाया गया, जहां जेटली, स्वराज और गडकरी मौजूद थे. भाजपा हजारे के बनाए यूपीए विरोधी मानस का फायदा उठाना चाहती थी.
राजनीति और संसद ऐसे समय में मुख्य मंच पर आ गईं जब सभ्य समाज में इस बात को लेकर विभाजन बढ़ रहा है कि लोकपाल विधेयक का कौन-सा संस्करण सर्वश्रेष्ठ है. लोकपाल विधेयक के विभिन्न संस्करणों की खूबियों के बारे में 29 अगस्त को इंडिया टुडे में एक गोलमेज परिचर्चा के दौरान अरुणा राय के नेतृत्व वाले नेशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टु इन्फॉर्मेशन (एनसीपीआरआइ), जिसके सदस्य अरविंद केजरीवाल भी हैं, के प्रमुख सदस्य निखिल डे ने दलील दी कि जन लोकपाल विधेयक का सिटीजंस चार्टर, जिसे संसद विधेयक में शामिल करने के लिए राजी हुई, इतना पेचीदा है कि इकलौता लोकपाल उसे संभाल नहीं सकता.
डे की दलील है कि शिकायत निवारण भ्रष्टाचार से अलग है और इसमें अन्य सरकारी कार्यक्रमों के अलावा रोजगार, खाद्यान्न, स्वास्थ्य और शिक्षा तथा डिलीवरी सिस्टम शामिल हैं.
एनसीपीआरआइ और टीम अण्णा के बीच मतभेद अप्रैल में हजारे के पहले अनशन के बाद से ही बने हुए हैं. उससे पहले सब एक साथ काम कर रहे थे, जन लोकपाल विधेयक पर एक साथ बहस कर रहे थे. एनसीपीआरआइ के ही शेखर सिंह ने इंडिया टुडे के सामने इसकी पुष्टि की. उन्होंने कहा, ''4 अप्रैल तक हम एक साथ विधेयक पर चर्चा कर रहे थे. अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण, दोनों एनसीपीआरआइ की कार्यकारी समिति के सदस्य हैं.''
शेखर के मुताबिक, हजारे के अनशन के फैसले पर मतभेद खड़ा हो गया. शेखर कहते हैं, ''हम चाहते थे कि जब तक हम बातचीत करके कुछ मतभेदों को हल नहीं कर लेते तब तक अण्णा हजारे अनशन न करें.''
9 अप्रैल को जब अनशन खत्म हुआ तो अरुणा राय को सिविल सोसाइटी का प्रतिनिधित्व करने वाली ड्राफ्टिंग कमेटी में शामिल नहीं किया गया. इंडिया टुडे ने केजरीवाल से अरुणा राय को शामिल नहीं किए जाने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया, ''सरकार को अपनी ओर से अरुणाजी का नाम लेना चाहिए था, वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की सदस्य हैं.''
शेखर जोर देकर कहते हैं कि ड्राफ्टिंग कमेटी में राय को शामिल न किया जाना समस्या नहीं है. उनका कहना है, ''समस्या तब शुरू हुई जब उन्होंने यह रवैया अपना लिया कि जो जन लोकपाल विधेयक का समर्थन नहीं करते वे या तो भ्रष्ट हैं या फिर भ्रष्टाचार के समर्थक हैं. उनकी यह जिद कि उन्हीं का संस्करण सही है और उसे ही संसद में पेश किया जाना चाहिए, हमारे लिए समस्या थी.''
एक वरिष्ठ नागरिक अधिकार कार्यकर्ता बताते हैं, ''उन सबकी अपनी छवि, क्षेत्र और दांव है, जिसकी उन्हें रक्षा करनी है. वे सभी मीडिया के जरिए लोगों का ध्यान खींचने के लिए होड़ लगा रहे हैं. कभी-कभी इस तरह के हालात में मूल मुद्दा गौण हो जाता है.''
सिविल सोसाइटी के कुछ दूसरे सदस्य टीम अण्णा की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं. अरुंधति राय, जो अप्रैल में पहली बार लोकपाल का मुद्दा उठने के बाद से ही अस्वाभाविक रूप से खामोश हैं, इस आंदोलन में ''विश्व बैंक का जाना-पहचाना एजेंडा'' देखती हैं. राय भूषण की करीबी मानी जाती हैं. अब वे केजरीवाल और किरण बेदी पर ऐसे स्वयंसेवी संगठन चलाने का आरोप लगा रही हैं जिन्हें फोर्ड और रॉकफेलर फाउंडेशन से विदेशी फंडिंग मिलती है और इस तरह वे इन अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठनों का एजेंडा चला रहे हैं.
सोनिया गांधी की अगुआई वाली एनएसी के सदस्य हर्ष मंदर ने जन लोकपाल विधेयक को इंसान का बनाया दानव (फ्रैंकेनस्टीन) करार दिया है. मंदर कहते हैं, ''वे चाहते हैं कि लोकपाल जांचकर्ता, मुकदमा चलाने वाला और न्यायाधीश हो. यह बहुत खतरनाक है.''
सिविल सोसाइटी के दूसरे तबकों से टीम अण्णा के जबरदस्त विरोध को देखते हुए वह आसानी से विचलित हो सकती है. लेकिन केजरीवाल ऐसा न होने देने के लिए प्रतिबद्ध हैं. ''हम अरुणाजी (राय) का बहुत सम्मान करते हैं. जन लोकपाल विधेयक और एनसीपीआरआइ के संस्करण में शायद ही कोई अंतर है. बातचीत से इसका समाधान निकाला जा सकता है.'' फिर वे कुछ मायूसी के साथ कहते हैं, ''उनसे बातचीत शुरू करने की हमारी सारी कोशिश नाकाम हो गई.''
संसद की स्थायी समिति टीम अण्णा और सिविल सोसाइटी की दूसरी बेमेल आवाजों को सुनेगी. ऐसा नहीं लगता कि लोकपाल विधेयक का अंतिम संस्करण टीम अण्णा की मांगों के मुताबिक तैयार किया हो सकेगा. लेकिन अगर उनकी मांगों से ज्यादा अलग हटकर विधेयक बनेगा तो टीम अण्णा के बारे में माना जाएगा कि उन्होंने भारत के लोगों से किया गया वादा तोड़ दिया. फिर से उत्साह में आई संसद के पास अपनी रक्षा के लिए हमेशा 'सिद्धांततः' (लेकिन अमल में नहीं) की आखरी चाल बनी रहेगी.
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