शनिवार, 23 जुलाई 2011

त्रीशंकू

त्रीशंकू कोई अज्ञात  पुरुष नहीं है, इसका नाम एबं सदेह स्वर्ग  प्राप्ति  के प्रयत्न में अपयश प्राप्त होने से अंतरिक्षय में ही अधोमुख  लटकते रहने सम्बन्धी कथा सर्ब परिचित है. परन्तु यह बात बहुत कम लोग जानते  होंगे कि वह स्वप्न में बचन का परिपालन जग्रुताबस्था में करने बाले एबं तदर्थ अनंत कष्ट झेलकर सत्यनिष्ठा का आदर्श प्रस्तुत  करने बाले प्रातःस्मरणीय राजा  हरिश्चंद्र का पिता थे. 
इक्ष्वाकु वंश में त्रयारण नाम का एक राजा हुआ. उसका पुत्र था त्रीशंकू. उसका वास्तविक नाम था सत्यव्रत. जन्म से वह मंदबुद्धि एबं जिद्दी था. बड़ा होने पर उसने एक बार बड़े गर्व से एक ब्रह्मण वधु को यह कहते हुए जवर्दस्ती से विवाह मंडप से उठा  उठा लिया कि " मैं राजपुत्र हूँ, मेरा कौन क्या कर सकता है ? राजा के पास शिकायत पहुंची. राजा ने उससे पूछा तो बोला कि " विवाह तो सप्तपदी के के पश्चात पूर्ण होता है, उसके पूर्व वधु को लेन पर वह अपहरण नहीं कहा जा सकता ." उसकी उद्दंडता इतनी अधिक बढ़ गयी थी. राजा इस बात से क्रोधित हो गए. उन्होंने कहा-" तुने चंडाल जैसे कृत्य किया है. अतः यहाँ से चले जाओ और राज्य के बाहर चांडालों के साथ ही तुम रहो. तुम्हारी इस घृणित करनी के कारण अब मेरी पुत्रवान कहलाने कि इच्छा भी शमाप्त हो गयी, क्यूँकि तू ने कुल को कर दिया है. तुझे अब राजगद्दी का भी हक नहीं मिलेगा. यह घोषणा होते
 समय बसिष्ठ मुनी ने राजा को रोका क्यूँ नहीं, ऐसा कहकर सत्यव्रत मुनि पर ही बिगड़ गया. परन्तु उसका कुछ उपाय नहीं था. तत्कालीन समाज नियम के अनुसार उसे बन में चांडालों के बस्ती में रहना पड़ा.
त्रयारण भी अति उद्विग्न हो कर तपश्चर्या के लिए जंगल में चला गया. उस समय वसिष्ठ ने राज कार्य सम्हाल लिया. परन्तु राज कार्य की उनकी पद्धति सम्पूर्ण अलग थी.राज्य को वे एक बड़ा परिवार मानते थे. वसिष्ठ के
लिए लोगों के ह्रदय में अत्यधिक आदर था, अतः कोई कुछ कहता नहीं था.
   इस प्रकार कई वर्ष बीत गए. सब लोग शांति पूर्वक आपने आपने कामधंदे में लग गए. परन्तु अन्य लोग चुप कैसे रहते ? पडोश में विश्वामित्र का राज्य था.उसने आक्रमण कर दिया. उसका परिणाम सर्वश्रुत ही है.अंत में विश्वामित्र तपश्चर्या के लिए चला गया. परन्तु उस समय की उसकी तपस्या में तामस भाव था. उसने सत्यव्रत को भड़काया. सत्यव्रत ने बसिस्ठ के हाथ से आपना राज्य छीन लेने की इच्छा से लूटमार प्रारम्भ कर दिया और इसी प्रकार वो आपने ही प्रजा को पीड़ा देने लगा.जिस प्रजा ने अपनी हिम्मत एबं पराक्रम के बल पर विश्वामित्र के परचक्र की सराहना नहीं की वहां सत्यव्रत की दाल कैसे गलती ? सत्यव्रत को भी भाग जाना पडा. इसी समय से उसे त्रिशंकु नाम प्राप्त हुआ. शंकु सींग के आकार का होता है.मनुष्य के शिर पर सींग हो हो तो उसे पशु की संज्ञा प्राप्त होगी और इसी से लाक्ष्यणीक रूप में शंकु का अर्थ है पशुता, अपराध या पाप हो गया. सत्यव्रत ने तो तीन तीन वार अपराध किया था. राजा का पुत्र होकर भी उसने ब्रह्मण के विवाह में विघ्न उपस्थित किया था, यह उसका पहला अपराध. पिता से उसने उद्दंडतापूर्ण व्यवहार बातचीत की जिससे पिता उस पर क्रोधित हुआ, यह दुसरा अपराध और अंत में किसी डकैत की तरह उसने प्रजा को पीड़ा दी, यह था उसका तीसरा अपराध. इसी कारण उसका सत्यव्रत नाम लुप्त हो गया और त्रिशंकु नाम से ही वह प्रसिद्द हो गया.    


               

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