रविवार, 29 जनवरी 2012

कांग्रेस ने इस देश को आरटीआई जैसा कानून दिया !!!!



एक तरफ भोंदू युवराज और सोनिया गाँधी अपनी पीठ थपथपाते है कि कांग्रेस ने इस देश को आरटीआई जैसा कानून दिया ..लेकिन सरकार ने सोनिया गाँधी के विषय मे डाले जाने वाले आर टी आई को उठाकर फेक दिया ..

अब तक करीब सोनिया गाँधी के विषय मे चालीस आर टी आई के द्वारा जानकारी मांगी गयी है .. 
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१- सोनिया गाँधी पिछले १० सालो मे कहा कहा गयी ?

करीब पांच साल तक धक्के खाने के बाद जब अरजदार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया तब सरकार ने कहा कि सरकार को इस बारे मे कोई जानकरी नहीं है ..
वाह रे कांग्रेस .. कोई भी विदेश जाता है तो पासपोर्ट पर हवाई अड्डे पर इम्मीग्रेशन का मुहर लगता है और उसके पासपोर्ट मे पूरी जानकारी दर्ज की जाती है .. और सबको मालूम है कि पासपोर्ट किसी भी व्यक्ति की निजी सम्पति नहीं होता बल्कि सरकार की समाप्ति है .और ये सरकार के लिए एक मिनट का काम है की वोसोनिया गाँधी के पूरे विदेश यात्रा का ब्यौरा दे ..

अभी भी केस सुप्रीम कोर्ट मे चल रहा है , लेकिन ना जाने क्यों सोनिया गाँधी के तरफ से इस छोटे मामले मे भारत के बड़े वकीलों मे से एक अभिषेक मनु सिंघवी लड़ रहे है ..
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२- सोनिया गाँधी के ईलाज का खर्च क्या भारत सरकार ने उठाया था ? यदि हा तो कितना भुगतान हुआ?

कई महीनों तक कई मंत्रालयों मे ये अर्जी गुजरी ..किसी ने जबाब नहीं दिया ..जब अरजदार ने सुचना आयोग मे केस किया तब इसे सांसदों का विशेषाधिकार का मामला बताकर इस अर्जी पर कोई जबाब देने से सरकार ने मना कर दिया .
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३-सोनिया और राहुल गाँधी सरकारी फाइलों मे अपना अधिकारिक धर्म क्या लिखते है और हकीकत मे वो किस धर्म का पालन करते है ?

पांच सालो तक विभिन्न मंत्रालयों मे ये फाइल भटकती रही .. बाद मे सुप्रीम कोर्ट मे जाने पर सरकार का जबाब आया कि चूँकि सरकार जनगणना के समय लोगो के निजी जानकारी इकट्ठा करती है इसलिए कानून के मुताबिक सरकार इस जानकारी को सार्वजनिक नहीं कर सकती ..
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४- सोनिया गाँधी को वोटर कार्ड जारी करने के समय सोनिया गाँधी ने कौन कौन से दस्तावेज 
निर्वाचन आयोग को दिए ?

कहने को तो भारत का निर्वाचन आयोग एक स्वत्रंत संवैधानिक संस्था है लेकिन सोनिया गाँधी के मामले पर वो भी एक गुलाम जैसे व्यहार करने लगता है .. यसुचना सीधे सीधे निर्वाचन आयोग के अधिकार छेत्र मे आता है फिर भी निर्वाचन आयोग ने नौ विभागों मे इस फाइल को सालो तक घुमाया .. और आज भी कोईजबाब नही दिया 
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५- भारत पाक युद्ध के समय सोनिया गाँधी कहा थी ?

आज तक किसी भी विभाग ने इसका खुलासा आधिकारिक रूप से नहीं किया है .जबकि विदेश मंत्रलय एक मिनट के इसका जबाब दे सकता है .. हकीकत मे भारत पाक युद् के समय अफवाह उडी थी कि पाकिस्तानी लड़ाकू विमान दिल्ली पर बमबारी कर सकते है .. फिर सोनिया गाँधी अपने बच्चो और राजीव गाँधी को अकेले छोडकर अपनी जान बचाने के लिए इटली रहने चली गयी थी .
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६- सोनिया गाँधी का जन्म प्रमाण पत्र 

आज तक सरकार ने अरजदार को नहीं दिया .. ईसाई समाज मे जन्म प्रमाण पत्र देने का अधिकार केवल चर्च के पादरी को है .. और सोनिया गाँधी के पास भी इटली के तुरिन कस्बे के पादरी का जन्म प्रमाण पत्र होना चाहिए , लेकिन सोनिया गाँधी भारत मे एफिडेविद करके बनाया हुआ दूसरा जन्म प्रमाण पत्र सरकारी विभागों मे दी है ..

इस बारे मे कहा जाता है कि सोनिया गाँधी ने अपनी जन्मतिथि मे फेरफार की है क्योकि सुब्रमण्यम स्वामी ने जो तुरिन के चर्चसे उनका जन्मतिथि हासिल किये है उसके अनुसार तो सोनिया गाँधी के पिता चार सालो से जेल मे थे .फिर इनका जन्म !!!!!!!!!!!!!!!
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७-राबर्ट वढेरा का पिछले पन्द्रह सालो का आईटी रिटर्न 

आयकर विभाग नहीं दे रहा है . क्योकि कहा जाता है की प्रियंका से शादी के पहले राबर्ट के पास पैन कार्ड तक नहीं था और वो आयकर नहीं देते थे क्योकि उनकी आमदनी इतनी भी नहीं थी की वो आयकर के दायरे मे आये .. इस जानकारी से सरकार को डर है की राष्ट्रीय दामाद जनता के सामने बेनकाब हों जायेगा ..
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८-राबर्ट वढेरा को किस कानून के तहत हवाई अड्डों पर जाँच से छूट मिली है ?

ये फाइल कई विभागों के चक्कर काट रही है ..और आज तक सरकार ने नहीं बताया की आखिर राबर्ट वढेरा को हवाई अड्डे पर सुरछा जाँच से छूट क्यों मिली है ? 
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९- राहुल गाँधी ने अपनी एमफिल की डिग्री नाम बदल कर ली है और वो मैकेंजी मे भी नाम बदलकर एक साल तक नौकरी किये .. राहुल गाँधी के पासपोर्ट पर अलग नाम है और उनके संसंद मे दिये फार्म और निर्वाचन मे अलग है .. क्या भारत सरकार इसे फ्रोड नहीं मानती ?

आज तक इसका जबाब नहीं आया .. फिर जब राहुल गाँधी के आफिस मे अरजदार ने पूछा तो राहुल गाँधी का सिर्फ एक लाईन का जबाब आया की लिट्टे से मेरे जान को खतरा था ..

लेकिन ये कानून की परिधि मे एक फ्राड मना जायेगा 

मित्रों ये है दावा जो राहुल गाँधी यूपी मे अपने कुर्ते की आस्तीन चढाकर कहते है कि हमने इस देश को आर टी आई जैसा शशक्त कानून दिया ..लेकिन ये कानून इस नकली गाँधी परिवार के आगे कितना ताकतवर है उसका नमूना आप खुद देख लीजिए

शनिवार, 28 जनवरी 2012

भारत का सांस्कृतिक पतन

भारत का सांस्कृतिक पतन 
ऋषि भूमि, राम भूमि, कृष्ण भूमि, तथागत की भूमि... भारत के गौरवशाली अतीत को यदि शब्दों में एवं वाणी में कालांतर तक भी बांधने का प्रयास किया जाए तो संभव नहीं है। वर्तमान में पश्चिम का अंधानुकरण करने से जो भारत का सांस्कृतिक पतन हुआ है वह निश्चय मानिए आपके प्रयासों से समाप्त होगा। इस पश्चिम के अंधानुकरण एवं मानसिक परतंत्रता के रोग के उपचार हेतु इसका कारण प्रभाव आदि जानना भी नितांत आवश्यक है।

भारत पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से २०० से २५० वर्षों तक अंग्रेजो का शासन रहा, अल्पावधि तक फ्रांसीसियों एवं डच आक्रान्ताओं का प्रभाव भी रहा। भारत के कुछ भूभागो केरल, गोवा (मालाबार का इलाका आदि ) पर तो, पुर्तगालियों का ४००–४५० वर्षों तक शासन रहा।

भारत पर ७–८ शताब्दी से आक्रमण प्रारंभ हो गए थे। मोहाम्मदबिन कासिम, महमूद गजनवी ,तैमूर लंग, अहमद शाह अफदाली, बाबर एवं उसके कई वंशज इन आक्रांताओंके का भी शासनकाल अथवा प्रभावयुक्त कालखंड कोई बहुत अच्छा समय नहीं रहा भारत के लिए, सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से।

भिन्न भिन्न आक्रांताओ के शासनकाल में भारत में सांस्कृतिक एवं सभ्यता की दृष्टि से कुछ परिवर्तन हुए। कुछ परिवर्तन तो तात्कालिक थे जो समय के साथ ठीक हो गए, लेकिन कुछ स्थाई हो गए। जब तक भारत पर आक्रांताओ का शासन था तब तक हम पर परतंत्रता थी। सन १९४७ की तथाकथित सत्ता के हस्तांतरण के उपरांत शारीरिक परतंत्रता तो एक प्रकार से समाप्त हो गई किंतु मानसिक परतंत्रता से अब भी हम जूझ रहे है। यह अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के लिए जुझारूपन हमारे रक्त में है, जो कभी सपाप्त नहीं हो सकता। इसी के कारण हमारी वर्तमान संस्कृति में अधकचरापन आ गया है "न पूरी ताकत से विदेशी हो पाए, न पूरी ताकत से भारतीय हो पाए, हम बीच के हो गए, खिचड़ी हो गए" !!

भारतीय भाषाओँ के विरुद्ध एक षड़यंत्र -
एक सबसे बड़ा विकार स्थानीय भाषा एवं बोली के पतन के रूप में आया। हम आसाम में, बंगाल में, गुजरात में, महाराष्ट्र में रहते है वही की बोली बोलते है, लिखते है, समझते है परंतु सब सरकारी कार्य हेतु अंग्रेजी ओढ़नी पड़ती है। यह विदेशीपन, अंग्रेजीपन के कारण और भी भयावह स्थिति का तब निर्माण होता है जब नन्हे नन्हे बालको को कान उमेठ-उमेठ कर अंग्रेजी रटाई जाती है। सरकार के आकड़ो के अनुसार जब प्राथमिक स्तर पर १८ करोड़ भारतीय छात्र विद्यालय में प्रथम कक्षा में प्रवेश लेते है तो अंतिम कक्षा जैसे उच्च शिक्षा जैसे अभियांत्रिकी (इंजीनियरिंग), चिकित्सा (मेडिकल), संचालन (मैनेजमेंट) आदि तक पहुँचते-२ तो १७ करोड़ छात्र/छात्राएं अनुतीर्ण हो जाते है, केवल १ करोड़ उत्तीर्ण हो पाते है। भारत सरकार ने समय समय पर शिक्षा पर क्षोध एवं अनुसंधान के लिए मुख्यतः तीन आयोग बनाए दौ. सि. कोठारी (दौलत सिंह कोठारी), आचार्य राममूर्ति एवं एक और... सभी का यही मत था की यदि भारत में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा व्यवस्था न हो अपितु शिक्षा स्थानीय एवं मातृभाषा में हो तो यह जो १८ करोड़ छात्र है, सब के सब उत्तीर्ण हो सकते है, उच्चतम स्तर तक | 

विचार कर देखे शिक्षा मातृभाषा में नहीं होने का कितना अधिक दुष्परिणाम उन १७ करोड़ विद्यार्थियों को भोगना पड़ता है, इनमें से आधे से अधिक तो शुरुआत में ही बाहर हो जाते कोई पांचवीं में तो कोई सातवीं में कुछ ८-८.५ करोड़ विद्यार्थी इस व्यवस्था के कारण सदैव के लिए बाहर हो जाते है। यह कैसे दुर्व्यवस्था है जो प्रतिवर्ष १७ करोड़ का जीवन अंधकारमय बना देती है। अगर आप प्रतिशत में देखे तो ९५% सदैव के लिए बाहर हो रहे है। यह सब विदेशी भाषा को ओढ़ने के प्रयास के कारण, बात मात्र विद्यार्थियों के अनुत्तीर्ण होने की नहीं अपितु व्यवस्था की है।

दुर्भाग्य की पराकाष्ठा तो देखिये की जब कोई रोगी जब चिकित्सक के पास जाता है तो वह चिकित्सक उसे पर्ची पर दवाई लिख के देता है, मरीज उसे पढ़ नहीं सकता वरन कोई विशेषज्ञ ही पढ़ सकता है। कितना बड़ा दुर्भाग्य है उस रोगी का की जो दवा उसको दी जा रही है, जो वह अपने शरीर में डाल रहा है, उसे स्वयं न पढ़ सकता न जान नहीं सकता की वह दवा क्या है ? उसका दुष्परिणाम क्या हो सकता है उसके शारीर पर ? यदि वह जोर दे कर जानना भी चाहे तो डाक्टर उसे अंग्रेजी भाषा में बोल देगा, लिख देगा उसे समझने हेतु उसे किसी और विशेषज्ञ के पास जाना होगा।

क्योँ बंगाल में, असम में, गुजरात में, महाराष्ट्र में, हिंदी भाषी राज्यों आदि में दवाइयों का नाम क्रमषः बंगला में, असमिया में, गुजरती में, मराठी में, हिंदी में आदि में नहीं है। यह बिलकुल संभव एवं व्यावहारिक है। संविधान जिन २२-२३ भाषओं को मान्यता देता है उनमें क्योँ नही ? राष्ट्रीय भाषा हिंदी (हम मानते है) में क्यों नहीं जिसे समझने वाले ८० से ८५ करोड़ है और तो और सरकार ने नियम बना रखा है दवाइयों के नाम लिखे अंग्रेजी में, चिरभोग (प्रिस्किप्शन) लिखे अंग्रेजी में, छापे अंग्रेजी में आदि। जिस भाषा (अंग्रेजी) को कठिनाई से १ से २ प्रतिशत लोग जानते है।
ऐसा ही सत्यानाश हमने न्याय व्यवस्था का कर रखा है, उदाहरण : मान लीजिए मैं असम का व्यक्ति हूँ मुझे कुछ न्याय संबंधित परेशानी है तो पहले असमियां में वकील को समझाओ, वकील भाषांतर करे अंग्रेजी में उपरांत वह जज को समझाए। जज विचार कर अंग्रेजी में वकील को समाधान सुनाये, वकील अंग्रेजी का भाषांतर करे असमियां में, उपरांत मुझे समझावे... अरे भाई क्या सत्यानाश कर रखा है। इन सब में कितना समय एवं शक्ति की नष्ट हो रही है अगर यह भाषा की परतंत्रता नहीं होती तो मैं सीधे अपनी दुविधा, परेशानी न्यायाधीश को असमिया में बता देता और वह उसका समाधान कर मुझे बता देता | किसी तीसरे व्यक्ति (न्यायज्ञ) की आवश्यकता ही नहीं पड़ती भाषांतर के लिए।

बच्चों का निजी एवं कान्वेंट विद्यालयों में पिता माता के अंग्रेजी नहीं आने के कारण प्रवेश नहीं मिल पाना, किससे छिपा है ? आपका बालक कितना ही मेधावी क्योँ न हो अगर माता पिता को अंग्रेजी न आती हो तो, उन्हें निर्लज्जता के साथ कह दिया जाता है आप किसी और भाषा का विद्यालय खोज ले एवं बालक/बलिका को प्रवेश नहीं दिया जाता। ऐसे कान्वेंट विद्यालयों का तर्क होता है की अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती तो जो गृहकार्य हम बच्चे को देंगे उसमें आप कैसे सहायता करेंगे ? इसी अन्याय के कारण करोड़ो-करोड़ो बच्चे इन विद्यालयों में केवल इस लिए नहीं जा पाते क्यूंकि उनके माता पिता को अंग्रेजी नहीं आती और अगर कभी प्रवेश हो ही जाता है तो मात्र अंग्रेजी नहीं आने के कारण उसमें कम अंक प्राप्ति के कारण विद्यार्थियों का समूल प्रतिशत घट जाता है एवं कभी कभी तो पुनः सभी विषयों की तयारी करनी पड़ती है।
अंग्रेजी कोई इतनी बड़ी भाषा नहीं है, जैसी की हमारे मन में उसकी छद्म छवि है, विश्व के मात्र १४ देशों में अंग्रेजी चलती है एवं यह वही देश है जो अंग्रेजो के परतंत्र रहे है।

इनके इन देशों में अंग्रेजी का स्वयं विकास नहीं हुआ है परतंत्रता के कारण इन्हें इसके लिए बाध्य होना पड़ा। विश्व की प्रमुख संस्थाए अंग्रेजी में कार्य नहीं करती, बहुत से देशों के लोग तो अंग्रेजी जानते हुए भी उसमें बात करना पसंद नहीं करते। जर्मनी में जर्मन में, फ़्रांस में फ्रेंच में, स्पेन में स्पेनिश में, जापान में जापानी में, चीन में चीनी में आदि देशों में अपनी भाषा में ही सरकारी कार्य भी किया जाता है। अंग्रेजी से निजात ही अच्छी है क्यूंकि इसमें हमारा विकास नहीं, मुक्ति नहीं।

संयुक्त राष्ट्र महासंघ के मानवीय विकास के लेखे जोखे में भारत लगभग १३४ में आता है बहुत से भारत से भी छोटे छोटे देश जो इस लेखे-जोखे में भारत से ऊपर आते है क्यूंकि उनमें अधिकांश अपनी मातृभाषा में कार्य करते है। स्वयं संयुक्तराष्ट्र भी फ्रेंच भाषा में कार्य करता है अंग्रेजी में तो वह अपने कार्यों का भाषांतर करता है अधिकांश भाषा विशेषज्ञ भी कहते है अंग्रेजी व्यकरण की दृष्टि से भी बहुत बुरी है।

भारत की सभी २२-२३ मातृभाषाएँ जो संविधान में स्वीकृत है, बहुत सबल है। उनमें से भी यदि सबसे छोटी भाषा को अंग्रेजी से तुलना करे तो वह भी अंग्रेजी से बड़ी है। उत्तर प्रांत के जो राज्य है, मणिपुर, नागालैण्ड, मिजोरम आदि उनमें जो सबसे छोटी भाषा एव बोलियां चलती है उनमें से भी सबसे छोटी भाषा है उसमें भी अंग्रेजी से अधिक शब्द है। जब सबसे छोटी भाषा भी अंग्रेजी से बड़ी है तो हम अंग्रेजी को क्यूँ पाल रहे है एवं हमारी सबसे बड़ी भाषा तो अंग्रेजी से कितनी बड़ी होगी। तकनिकी शब्द जो है न हम चाहे तो तात्कालिक रूप से जैसे के तैसे अंग्रेजी ले सकते।

लेकिन विचार की जो अभिव्यक्ति है वह मातृभाषा, बोलियों में कर थोड़े दिन में तकनिकी शब्दों को भी हर मातृभाषा में ला सकते है। कुछ परेशानी नहीं है और तो और हमारे पास माँ (संस्कृत) भी है उसका भी उपयोग किया जा सकता है। संस्कृत के शब्द तो सभी भाषओं में मिल जाते है।

कुत्सित मानसिकता पर राम बाण प्रहार

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता का झंडा लेकर भारतीय संस्कृति एवंपरम्पराओं पर कुठाराघात करने एवं उन्हें लहू-लुहान करने की कुत्सित मानसिकता पर राम बाण प्रहार करते हुए विद्यालयों में छात्रों को भगवद गीतापढ़ाने के प्रदेश सरकार के निर्णय के विरोध में दायर की गयी याचिका को १० मिनट में ठुकरा दिया | याचिका कैथोलिक पादरी बिशप काउन्सिल से गत वर्ष अगस्त में दायर की थी | तब न्यायालय ने वादी को गीता पढके आने के लिए कहा था |

काउन्सिल के प्रवक्ता 'फादर' आनंद मुत्तंगल की याचिका में कहा गया था की मध्य प्रदेश सरकार को "किसी एक धर्म की शिक्षाएँ पढ़ानें की जगह सभी धर्मों को पढ़ाना चाहिए" | याचिका में भारतीय प्रतीकों, एवं कथानकों से लिए गए नामों पर भी आपत्ति करते हुए कहा गया था कि सरकार की योजनायें जैसे "लाडली लक्ष्मी", "बलराम ताल", "कपिल धारा" आदि हिन्दू नामों पर आधारित हैं और "सेकुलर" नहीं हैं | सरकारी कार्यक्रमों में भूमि पूजन करना सेकुलरिस्म का उल्लंघन है |

याचिका सुनवाई करते हुए न्यायाधीश अजित सिंह एवं संजय यादव ने वादी के अधिवक्ता से पूछा कि क्या उन्होंने गीता पढ़ी है | उनके उत्तरों से असंतुष्ट न्यायालय ने निर्णय दिया कि गीता निश्चित रूप से भारतीय दर्शन का ग्रन्थ है न कि किसी धर्म विशेष का | निर्णय से निराश पादरी ने कहा कि वो निर्णय पढ़ के फिर आगे अपील करने पर विचार करेंगे |

आईबीटीएल विचार : प्रश्न ये उठता है कि भारत की ही संतान होकर क्यों कुछ लोग सूर्य नमस्कार एवं भगवद गीता जैसे मानव मात्र के लिए कल्याणकारी सनातन रत्नों का विरोध करते हैं? क्या कारण है कि भारत में ही जन्म लेकर भारत की ही गौरवशाली परम्पराओं एवं साहित्य का विरोध करना कुछ धर्मावलम्बियों की विवशता अथवा रूचि बन जाती है | प्रश्न ये भी है कि क्या ऐसा सेकुलरिस्म भारतीयता और सनातन राष्ट्रवाद का ही शत्रु नहीं ? यदि ऐसा विकृत सेकुलरिस्म देश की संस्कृति का ही शत्रु बन जाए, तो भारतीय जन मानस को उस पर विचार करने की आवश्यकता है |

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

जय माँ सरस्वती

                 माघ शुक्ल श्रीपंचमी, माँ सरस्वती की पावन पूजन तिथि पर सभी बंधुओं को सादर अभिनन्दन.

 या कुन्देन्दुतुषारहारधवला| या शुभ्रवस्तावृता|
या वीणावरदंडमंडितकरा| या श्वेतपद्मासना||
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभितिभिर्देव
ैःसदावंदिता|
सामांपातु सरस्वतीभगवती निःशेषजाड्यापहा||
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥


जय माँ सरस्वती 

बुधवार, 25 जनवरी 2012

गणतंत्र

लोक का स्थान स्वयं ने ले लिया और तंत्र का स्थान परिवादवाद ने, बची-खुची कसर जातिवाद के तंत्र ने कर दी। बढ़ते लम्पट तंत्र एवं गिरते राजनीतिक तंत्र से कहीं न कहीं नुकसान गणतंत्र को अवश्य ही हुआ है। गुलाम भारत को स्वतंत्र कराने में जिन नेताओं ने अपनी जवानी न्यौछावर कर दी उन्हें आज के तथाकथित लोकतंत्र से ज्यादा पीड़ा है, और हो भी क्यों न ?

इस गणतंत्र तक ना गण बचा है ना तंत्र !

आज के नेता लोकतंत्र के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं वह केवल शर्मशार ही करने वाला है, फिर बात चाहे भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने की हो, खूंखार अपराधियों जिन पर दर्जनों केस चल रहे है, बलात्कारी है, को अपना उम्मीदवार बना गणतंत्र के मंदिर में पहुंचाने का कुत्सित प्रयास ही किसी देशद्रोह से कम नहीं है। भारत की आजादी में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाली, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की सेना में सम्मिलित ‘‘लोह महिला’’ के रूप में प्रख्यात केप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल आज के लोकतंत्र को देख दुखी है वो कहती है कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने ऐसे लोकतंत्र का सपना तो कम से कम नहीं देखा था। इसमें बदलाव आना ही चाहिए, चुनाव में प्रत्याशी ऐसे खड़े हो जो जनता के भले की सोचे, शहर के विकास की सोचे न कि अपने और अपने परिवार के विकास के लिए।

हमें देश की आजादी पर गर्व होना चाहिए क्योंकि यह आजादी बहुत कुर्बानियों के बाद मिली है। इसे केवल निःस्वार्थ की भावनाओं से ही संभाला जा सकता है। वर्तमान राजनीति पर कहती है कि आज के नेता भ्रष्ट से भ्रष्टतम होते जा रहे है ऐसे चुनावों से कोई करिश्मा नहीं हो सकता। सच्चे देशभक्त युवाओं से ‘‘लोह महिला’’ को काफी उम्मीदें है। समाजसेवी मेघा पाटकर भी कुछ ऐसी ही राय वर्तमान राजनीति को लेकर रखती है। यह सच्चा लोकतंत्र नहीं है और न ही इसकी नीतियों में लोकतांत्रिक मूल्यों की सुगंध आती है।

महात्मा गांधी, वल्लभ भाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. राधा कृष्णन, डॉ. बाबा भीमराव अम्बेडकर ने जिस गणतंत्र की बात की थी। आज तो कम से कम दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है। जिस आदर के साथ स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी इनका नाम लेती है। वर्तमान परिदृश्य में आज ऐसा एक भी नेता नहीं है जिसे युवा पीढ़ी अपना आदर्श माने। जैसा कृत्य ये नेता करेंगे युवा उसी का अनुशरण करेंगे फिर युवाओं को दोष क्यों?

पांच राज्यों में चुनाव अपने पूरे शवाब पर है और ऐसे में नेता जाति, धर्म का उपयोग संविधान विरूद्ध बढ़-चढ़कर कर रहे है। ये यही नही रूकते, एक कदम आगे बढ़ सभी पार्टियों ने भ्रष्टाचारियों, बलात्कारियों, अपराधियों को अपने दलों में न केवल आदरपूर्वक जगह देते है बल्कि उनके गुणगान में संविधान में वर्णित आदर्शों को भी धता बता कह रहे है‘‘ ‘‘दर्जनों केस ही तो चल रहे है अपराध तो सिद्ध नहीं हुआ।’’ यह नियमों की निकृष्ट व्याख्या है। ‘‘क्या अपराधी और आदतन अपराधी में भेद करने की हमारे नेताओं की बुद्धि भी कुंठित हो गई है।’’

राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के बयानवीरों, आश्वासनवीरों को तो देखिए कोई कम्प्यूटर फ्री देने की बात करता है तो कोई बिजली ऋणमाफी, आरक्षण की बात करता है। कोई इन भले मानुषों से यह तो पूछे क्या ये पैसा आपके बाप का है? जो ऊल-जलूल घोषणाएं किये जा रहे हो। निःसंदेह पैसा आम जनता का है, जनता से ही टेक्स वसूलेंगे। अन्ततः जनता ही महंगाई की बलि की बेदी पर चढ़ेगी। हकीकत में ‘‘फ्री’’ शब्द ही असंवैधानिक है ऐसा कर हम कहीं न कहीं किसी के साथ धोखा दे रहे होते है। नेता जनता को बेवकूफ बनाने के नित नए फार्मूले ईजाद कर रहे है। नेताओं को भी अपनी जीत के लिए जनता की भावनाओं से खेलने का घिनोना खेल बंद कर सच्ची सेवा की बात करना चाहिए। जनता को इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जैसे ही पांचों राज्यों के चुनाव सम्पन्न होंगे दूसरे ही दिन पेट्रोल/डीजल की कीमतों में भारी वृद्धि कर दी जायेगी और फिर जनता को हमेशा की तरह कराहने के लिए, बिलखने के लिए उन्हें उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया जायेगा? नाटक के लिए कुछ विपक्षीगण रैली निकाल अपनी राजनीति को चमकायेंगे।

वक्त नाजुक है, निर्णय का है असली-नकली की पहचान का है जनता भावुकता में न वह इन राजनीतिक पार्टियों से इनकी घोषणाओं को संवैधानिक, कानूनी दृष्टि से पुख्ता करने के लिए निर्धारित शुल्क वाला स्टाम्प पेपर पर जिम्मेदार पार्टी पदाधिकारी से शपथ पत्र लेना चाहिए जिसकी प्रतियां जनता सुरक्षित रखे भविष्य में अपने वायदों से मुकरने के एवज में इन पर विधि सम्मत कार्यवाही जनहित में जनहित याचिका लगा इनके कर्मों का ईनाम जनता इन्हें दिला सके, करना होगा, हो सकता है इस फार्मूले से घोषणावीर बचते ही नजर आए लेकिन जनता को धैर्य एवं विश्वास केवल विधि सम्मत कार्यवाही पर ही करना होगा फिर देखिए इनका चाल और चरित्र।

संक्रांति


धर्म रक्षति रक्षितः
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्म भयावह |
सम्पूर्ण क्रांति = संक्रांति
अध्यात्मिक क्रांति ही सम्पूर्ण क्रांति है |
याद रखिये ! जो बाहरी क्रांतियाँ होती है, अध्यात्म्यशुन्य क्रांतियाँ होती है वे केवल मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क तक ही सीमित रहती है, वे मानव की चेतना को नहीं छु पाती और यही कारण है कि वे क्रांतियाँ अधूरी होती है, उन क्रांतियों से मानव का सर्वांगीन विकास नहीं हो पाता है | परन्तु जो हमारी संतों के क्रांति थी और है जो  कि वास्तव में एक सम्पूर्ण क्रांति (Total revolution) है जिसमें मानव का सर्वांगीन होता है | इस क्रांति को समाज में लाने के लिए उन्होंने मानव कि चेतना को विकसित किया और जब मानव की चेतना विकसित होती है तो वह सूर्य की भांति चमकने लगता है तथा सारे संसार को प्रेम से सरोवार कर देता है, वह फिर अपने जीवन को बदलता है | परन्तु जो अध्यात्मशुन्य क्रांतियाँ होती है, वे अधूरी होती है, वे मानव को, समाज को सम्पूर्ण रूप से नहीं बदल पाती है |
आज जिस विकट परिस्थिति से हमारा देश गुजर रहा है, राजनीति इसका समाधान नहीं कर सकती, केवल अध्यात्म से ही यह बच सकता है, यही इसका रक्षक है | हमारे देश का इतिहास बताता है कि जब-जब इस देश के ऊपर संकट आया, मानव पथभ्रष्ट हुआ तब- तब ज्ञानी महापुरुषों ने आत्मज्ञान के जरिये अध्यात्म के जरिये ही जनमानस को रह दिखाई | आज जो स्थिति पैदा हो गई है, इसमें भी अध्यात्म को अपनाकर ही हम हमारे समाज में धर्म और मर्यादा का जो पतन हो गया है उसे फिर से समाज में आरूढ़ कर कर सकते हैं |
अतः हमारे देश में अध्यात्म क्रांति की आवश्यकता है, न कि भौतिक क्रांति की |
इसीलिए अध्यात्मिक क्रांति ही सम्पूर्ण क्रांति है |   

शनिवार, 14 जनवरी 2012

मकर संक्रान्ति----अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होने का प्रतीक पर्व


15 जनवरी को मकर संक्रांति पर्व का आगमन हो रहा है,जिसे कि तिल संक्रांति भी कहा जाता है। यही ऎसा एकमात्र पर्व है जिसे समूचे भारतवर्ष में मनाया जाता है, चाहे इसका नाम प्रत्येक प्रांत में अलग-अलग हो और इसे मनाने के तरीके भी भिन्न हों। इसके माध्यम से हमें भारतवर्ष के सांस्कृतिक वैविधय की रंग-बिरंगी छटा देखने को मिलती है। मकर संक्रांति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध में होता है । इसी कारण यहां रातें बड़ी एवं दिन छोटे होते हैं तथा सर्दी का मौसम होता है, किंतु मकर संक्रांति से सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर बढने लगता है। जिससे कि दिन की बजाय रातें छोटी एवं दिन बड़े होने लगते हैं तथा यहीं से ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ हो जाता है। अब दिन बड़ा होगा तो निश्चित रूप से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार घटने लगेगा। अत: मकर संक्रांति पर सूर्य के इस राशि परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है। प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्यशक्ति में वृद्धि होगी------यही जानकर इस देश के विभिन्न प्रान्तों में विविध रूपों में सूर्यदेव की उपासना, आराधना एवं पूजन कर, उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की जाती है।
हमारे ऋषि-मुनियों नें इस पर्व के साथ एक प्रावधान जोड रखा है कि आज के दिन तिल, गुड़ के बने पदार्थों का सेवन करें और यथासामर्थ्य इन्ही वस्तुओं,पदार्थों का दान भी करें। दरअसल वातजन्य विकारों से बचने के लिए तिल सेवन के प्रयोजन के लिए ही तिल सक्रांति पर्व का निर्धारण किया गया है। यदि इस समय गुड,तिल का सेवन न किया जाए तो वसंत ऋतु में कफ तथा वर्षा ऋतु में वात रोग से पीडित होने की संभावनाएं बढ जाती हैं। इन्ही पदार्थों का दान करना भी इसलिए कहा गया है ताकि समाज का जो गरीब भिखारी वर्ग हैं, जो इन पदार्थों पर धन व्यय नहीं कर सकता, वो लोग भी इनका सेवन कर सकें।
अब दान की बात चली है तो एक बात विशेष रूप से कहना चाहूँगा। जैसा कि इस सनातन संस्कृ्ति को जानने वाला प्रत्येक व्यक्ति भली भांती परिचित है कि समस्त धार्मिक ग्रन्थों, शास्त्रों, पुराणों में दान की कैसी महिमा कही गई है। चाहे आप कोई भी धर्म ग्रन्थ उठा लीजिए या आप किसी धार्मिक कथा को पढ लीजिए आपको ये बात जरूर पढने को मिलेगी कि किसी पर्व विशेष पर ब्राह्मण को अमुक वस्तु का दान करने से इतना पुण्य मिलता है इत्यादि इत्यादि....यानि कि जन्म से लेकर मृ्त्यु प्रयन्त प्रत्येक अवसर पर किसी न किसी रूप में ब्राह्मण को दान देने पर जोर दिया जाता है।  
प्रत्येक धर्म ग्रन्थ में सिर्फ ब्राह्मण को ही दान लेने का अधिकारी इसलिए कहा गया है क्यों कि प्राचीनकाल में ब्राह्मण वर्ग एक तपा हुआ, परखा हुआ, चरित्रवान और लोकसेवी जन समुदाय था, जिसका सारा समय शास्त्र अध्ययन, समाज को शिक्षित करने, धार्मिक कृ्त्यों एवं अन्य लोक हितार्थ कार्यों में ही व्यतीत हो जाता था। उनके व्यक्तिगत व्यय की सीमाऎं बिल्कुल न्यून हुआ करती थी ओर उनके सारे प्रयत्न समाज हित की योजनाएं संजोने में हुआ करते थे। इसलिए उसके जीवन निर्वाह का भार समाज के अन्य वर्गों पर डाल कर दान देने की एक व्यवस्था बनाई गई थी । उस जमाने में दान के लिए पात्र-कुपात्र की, उपयोगिता-अनुपयोगिता की चिन्ता किसी को नहीं करनी पडती थी। जो कुछ भी देना होता था, वो ब्राह्मण के हाथों में सौंप दिया जाता था और देने वाला भी उसे अपना कर्तव्य मान कर दिया करता था। तब ब्राह्मण को देने का अर्थ समाज के लिए----धर्म के लिए----सत्प्रवृ्तियों के अभिवर्धन के लिए देना ही माना जाता था। आज वैसी स्थिति नहीं रही........आज समाज का ढाँचा पूरी तरह से बदल चुका है-----आज ब्राह्मण वर्ग पर समाज को शिक्षित करने, ज्ञान विस्तार ओर मार्गदर्शन की कैसी भी जिम्मेवारी का कोई बोझ नहीं है कि उसकी उदरपूर्ती, उसके जीवन निर्वहण के बारे में समाज के अन्य वर्गों को सोचना पडे।  इसलिए ब्राह्मण को दान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री न मानकर दान के लिए किसी निर्धन, लाचार, दीन-हीन प्राणी का चुनाव करें तो ही आपके द्वारा किया गया दान सही मायनों में पुण्यदायी हो सकता है। 

आप सब को मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाऎँ........मिलजुल कर पर्व मनाएँ ओर खूब जी भर कर रेवडी,गुड,तिल इत्यादि का सेवन करें....साथ ही यथासामर्थ्य दान भी अवश्य करें। यदि मँहगाई इजाजत दे तो :) 
आज का दिन (१४ --०१-- २०१२,शनिवार) भारतीय इतिहास और हिन्दू समाज के लिए काला दिवस के रूप में मनाया जाय | दोस्तों इस कुकृत्य को समग्र भारतवर्ष के हिन्दू समाज जिसमे थोडा सा भी स्वाभिमान और लज्जा है वो हमेशा के लिए याद रखेगा,और उचित जवाव भी देगा |
साधू संतों का ये अपमान नहीं सहेगा हिन्दुस्थान |

बुधवार, 11 जनवरी 2012

रश्दी पर सरकार जल्द फैसला करे: देवबंद

देश की प्रमुख इस्लामी शिक्षण संस्था दारूल उलूम देवबंद ने विवादास्पद लेखक सलमान रश्दी की प्रस्तावित भारत यात्रा को रोके जाने की मांग दोहराते हुए कहा है कि सरकार को इस मामले पर कोताही बरतने की बजाय जल्द फैसला करना चाहिए।
दारुल उलूम के कुलपति (मुहतमिम) मौलाना अबुल कासिम नोमानी ने यह भी कहा कि सरकार देश के मुसलमानों के जज्बात की कद्र करते हुए रश्दी के भारत आने पर पाबंदी लगाए, हालांकि सरकार ने स्पष्ट किया है कि रश्दी पीआईओ कार्डधारक हैं और किसी को इससे जुड़ी आपत्ति है तो अदालत का रुख कर सकता है।
मौलाना नोमानी ने कहा कि सरकार पीआईओ की दलील दे रही है। हम सिर्फ इतना चाहते हैं कि इस मामले पर कोताही बरतने की बजाय सरकार जल्द फैसला करे। सभी लोग उसके फैसले का का इंतजार कर रहे हैं। यह मुद्दा देश के 22 करोड़ मुसलमानों के जज्बात से जुड़ा है।
रश्दी इस महीने के आखिर में जयपुर साहित्य महोत्सव में शिरकत करने वाले हैं। इस संबंध में दारुल उलूम देवबंद ने पहले ही केंद्र सरकार से मांग की थी कि रश्दी को भारत आने से रोका जाए। भारतीय मूल के रश्दी के पास ब्रिटिश पासपोर्ट है और वह पीआईओ (भारतीय मूल का व्यक्ति) कार्डधारक हैं। पीआईओ कार्डधारक होने के कारण उन्हें भारत आने के लिए वीजा की जरूरत नहीं होती है।
पैंसठ वर्षीय रश्दी अपने उपन्यास द सैटेनिक वर्सेज को लेकर 1988 में विवादों में घिरे थे और भारत ने इस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था। ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला खुमैनी ने लेखक के खिलाफ मौत का फतवा जारी किया था।
मौलानी नोमानी ने कहा कि हम चाहते हैं कि इस शख्स (रश्दी) को भारत आने से हमेशा के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाए। इस पूरे मामले से मुसलमानों के जज्बात जुड़े हैं। सरकार पीआईओ का हवाला नहीं दे सकती। उसके पास 10 तरीके हैं, जिनके जरिए रश्दी को हिंदुस्तान में कदम रखने से रोका जा सकता है।
यह पूछे जाने पर कि भारत एक लोकतंत्र है एवं इसमें किसी को भी अपनी बात रखने और कहीं भी आने-जाने का अधिकार है तो नोमानी ने कहा कि यह हम भी मानते हैं कि हमारा मुल्क एक लोकतंत्र है, लेकिन इसमें सभी के मजहबी जज्बातों के कद्र की बात भी शामिल है। ऐसे में 22 करोड़ लोगों के जज्बातों का खयाल सरकार को करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि अगर सरकार इस मामले पर देश के मुसलमानों के जज्बात की कद्र नहीं करती है, तो फिर आवाम इसका जवाब देगी। हमने लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात रखी है। अब इस पर फैसला सरकार को करना है।
उधर, इस मामले पर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने आज कहा कि इसे बड़ा मुदा नहीं बनाया जाना चाहिए और अगर पीआईओ को लेकर किसी को आपत्ति है तो उसे अदालत का रुख करना चाहिए।

कार्टून

अरे भाई वो कार्टून किसने बनाया उसका नाम पहले देख लीजिये | इस देश में कार्टून बनाना जुर्म नहीं है वशर्ते कि कार्टून  ऍम.ऍफ़. हुसैन जैसे कुंठा ग्रस्त लोगों ने बनाया हो | वे चाहे भारत माता की नंगी तस्वीर बनाये ये या उनकी अपनी माँ की नंगी तस्वीर इस देश के मान्यवर न्यायलय,मान्यवर संसद या मान्यवर राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री  किसीको कुछ फर्क पड़नेवाला नहीं है क्यूंकि इस देश में शिर्फ़ और शिर्फ़ अल्पसंक्षको को केवल अभिव्यक्ति की अधिकार है,इस देश पर सबसे पहला हक शिर्फ़ अल्पसंक्षको को ही है | क्यूँकि इस देश के हिन्दुओं ने कभी भी संगठित होना नहीं शिखा | जिस दिन हिन्दू संगठित होना सिख जायेंगे उसी दिन ये सत्ता ललुप राजनेता जान जायेंगे कि हिन्दू क्या है और हिन्दुओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है |


♦ अरविंद गौड़


एम्.ऍफ़.हुसैन जिसने कि भारतमाता तथा हिन्दुओं की देवी देवताओं की उलग्न चित्र बनाता था उसके वापसी के इंतज़ार में ये लोग पलके बिछाए बैठे थे, तो रश्दी के भारत आने में क्यूँ विरोध करते हैं ? जब इनकी माँ पर बात आती है तो इनको दुखती क्यूँ है ?  इनकी माँ ही माँ है दूसरों की माँ, माँ नहीं और कुछ है ?
यह हिन्दुस्थान है ऊपर से धर्मनिरपेक्ष्य है यहाँ चाहे भारत माता को गालियाँ दो या अपनी माँ को,चाहे देवी देवताओं तोड़ फोड़ दो या वेद पुराणों  की होली जला डालो कोई कुछ नहीं कहेगा |आप सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष्यवादी  कहलायेंगे और पुरष्कृत किये जायेंगे, सम्मानित हो पाएंगे | लेकिन जिस दिन यह देश दारुल हरव से दारुल इस्लाम हो जायेगा उसी दिन किसी हिन्दू की कंधे पर शर दिखाई नहीं देगा | या तो मुस्लिम कवूल करो या मरो | और किसी मुस्लिम में इतना हिम्मत नहीं है कि पैगम्बर को गलियाँ दे या कुराने शरीफ कि होली जलाएं | यह हिन्दू धर्म है आप इसे मानो या न मानो, आप मानने से हिन्दू रहेंगे और नहीं मानने से भी हिन्दू रहेंगे |

शास्त्रीजी के नाम के पीछे जो गाँधी शव्द नहीं है तो उनको कौन याद करेगा ? अगर आप या मैं हमारे नाम के पीछे भी गाँधी शव्द लगा दें,  वशर्ते हम  नेहेरुद्दीन खानदान के होना चाहिए | तभी ये कांग्रेसी आप की चप्पल को भी पूजेंगे | वैसे ये मीडिया वाले भी  बेकार की बड़ी बड़ी बातें हांकते हैं उनसे पूछिए क्या हो गया था  इनको ?

आदित्श्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने, 
अयुर्प्रग्न्या वल्मविर्यम तेजः स्तेषम च जायते |
अकाल मृत्यु हरणम सर्व व्याधि विनाशनम, 
सूर्योपादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम |


भीख मांगना भी इस्लाम में गुनाह है,फिर भी क्यूँ तुम लोग आरक्षण  की भीख मांगते हो ?  

गहलोत कार्यक्रम बीच में ही छोड़कर चलते बने




मोदी ने की खिंचाई तो मंच छोड़ चले गए गहलोत








जयपुर। निवेश को लेकर राज्यों में प्रतिस्पर्धा के बीच प्रवासी भारतीय सम्मेलन का मंच आखिरी दिन राजस्थान और गुजरात के मुख्यमंत्रियों के लिए अखाड़ा बन गया। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के निशाने पर थे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत। मोदी ने सोनिया गांधी का नाम लिए बिना गहलोत पर निशाना साधा तो परेशान होकर गहलोत ने मंच छोड़ दिया। हालात बिगड़ते देख केंद्रीय मंत्री वायलार रवि को दखल देना पड़ा।
सम्मेलन में मुख्यमंत्रियों के संयुक्त सत्र के दौरान नरेंद्र मोदी उस वक्त भड़क गए जब अशोक गहलोत ने केंद्र की यूपीए सरकार और सोनिया गांधी की तारीफों के पुल बांधने शुरू किए। गहलोत ने राज्यों के खासकर राजस्थान के विकास के लिए सोनिया गांधी को श्रेय दिया। जो मोदी को नागवार गुजरा। गहलोत के भाषण के बाद मोदी ने जैसे ही मंच से गहलोत की खिंचाई शुरू की, गहलोत कार्यक्रम बीच में ही छोड़कर चलते बने कि मोदी जी जो चाहे सो बोलें। मैं जा रहा हूं।                                                                                                 मोदी ने अपने भाषण में कहा कि गहलोत जी ने बताया है कि उन्हें दिल्ली क्या-क्या देता है। आशीर्वाद दे रहा है। मुझे कुछ नहीं मिल रहा है। मैंने अपने बलबूते गुजरात को बनाया है। गहलोत के जाने के बाद भी मोदी चुप नहीं हुए और विकास के एक-एक मुद्दे पर गहलोत के राजस्थान से अपने गुजरात की तुलना करते रहे।मोदी ये जताने की कोशिश करते रहे कि किस तरह विकास के पैमाने पर गहलोत से वे मीलों आगे हैं। राजस्थान में इन दिनों हो रही बिजली कटौती को भी निशाना बनाते हुए मोदी ने कहा कि कुछ राज्यों में बिजली आना ही सरप्राइज है। अभी गहलोत जी कह रहे थे कि उनके पास आठ हजार मेगावाट बिजली है, लेकिन इससे आधी तो गुजरात के पास सरप्लस है।सेशन के दौरान कई प्रवासी भारतीयों के मोदी के समर्थन में हूटिंग, तालियां बजाने और मोदी से राजस्थान और केंद्र के शासकों को प्रेरणा लेने की सलाह से कार्यक्रम में मौजूद यूपीए सरकार के केंद्रीय प्रवासी मामलों के मंत्री वायलार रवि बौखला गए। रवि ने मंच पर आकर एक प्रवासी भारतीय को झिड़क दिया कि वे सलाह न दें, न ही व्यक्तिगत सवाल करें, दोनों में जमकर बहस हुई। वायलार रवि ने कहा कि ये मंच व्यक्तिगत मामलों के लिए नहीं है, आप रूल-रेगुलेशन का पालन करिए। क्या समझते हैं आप।इस घटनाक्रम से गहलोत इतने व्यथित हो गए कि बाद में निवेश के मुद्दे पर प्रवासी भारतीयों से बात करने भी नहीं गए। राजस्थान के पवैलियन में चार मंत्रियों ने निवेशकों का सामना किया, जबकि गुजरात औऱ झारखंड के पवैलियन में वहां के मुख्यमंत्रियों ने खुद कमान संभाली। राजस्थान के पवैलियन में निवेशकों ने मुख्यमंत्री गहलोत को बुलाने की मांग भी की। लेकिन गहलोत नहीं आए।

अब्दुल्ला द्वारा जुलाई समझौते का उल्लंघन स्वतंत्र कश्मीर की रूपरेखा तैयार


हमारा राष्ट्रीयता का आधार भारतमाता है,केवल भारत ही नहीं |
माता शव्द हटा दीजिये, तो भारत केवल जमीन का एक टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा ||
(पंडित दीनदयाल उपाध्याय)  

अब्दुल्ला द्वारा जुलाई समझौते का उल्लंघन स्वतंत्र कश्मीर की रूपरेखा तैयार

- दीनदयाल उपाध्याय
(पांचजन्य, 11 मई, 1953)
अलग निशान और अलग प्रधान का निर्माण कर जम्मू और कश्मीर के नेता अपनी पृथकतावादी मनोवृत्ति का परिचय पहले ही दे चुके हैं किंतु जो अलग विधान इस राज्य के लिए उन्होंने बनाने का प्रस्ताव किया है। वह इस मनोवृत्ति का व्यापक स्पष्टीकरण करता है। सच में तो भारत के लिए जम्मू और कश्मीर भी उसी प्रकार सम्मिलित है जिस प्रकार अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के पूर्व स्वतंत्र की हुई शेष पाँच सौ चव्वन रियासतें हैं। एक विधान बन चुका है। वह विधान सब पर लागू है और आशा थी कि जम्मू और कश्मीर पर भी यह विधान लागू होगा। किंतु न मालूम किस घड़ी में हमारे प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के मुँह से जनमत संग्रह की बात निकल गई और तब से शेख अब्दुल्ला तथा उनके साथी उसका आधार लेकर स्वतंत्र कश्मीर के मंसूबे पूरे कर रहे हैं। कश्मीर में लड़ाई की स्थिति होने के कारण उस रियासत का भारत के साथ अन्य रियासतों के समान पूरी तरह से विलीनीकरण नहीं हो सका और इसीलिए संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़कर भारत कश्मीर के उस समय के संबंधों का दिग्दर्शन कराया गया तथा भावी की दिशा इंगित की गई।
अस्थायी और अंतरिम प्राविधानों के अंतर्गत अनुच्छेद 370 में यह स्पष्ट दिया है कि भारत और कश्मीर के संबंध तीन मामलों तक सीमित रहेंगे। किंतु उसी अनुच्छेद की धारा 3 में यह भी कहा है कि कश्मीर की संविधान सभा के अभिस्ताव पर भारत के प्रधान यह घोषणा कर सकते हैं कि अनुच्छेद 370 पूरी तरह समाप्त हो गया अथवा उसमें कुछ परिवर्तन कर लिया गया। विधान निर्माताओं की यह अपेक्षा थी कि उस समय चाहे कश्मीर को अन्य 'ख' श्रेणी राज्यों के समकक्ष न रखा जाए किंतु वह दिन अवश्य आएगा जब अनुच्छेद 370 समाप्त हो जाएगा और कश्मीर भी पूर्णतया 'ख' श्रेणी का राज्य होकर भारत में मिल जाएगा। स्वर्गीय श्रीयुत गोपालास्वामी आयंगर ने, जिन्होंने अनुच्छेद 370 का प्रस्ताव किया था, संविधान सभा में यह आशा भी व्यक्त की थी किंतु वह आशा दुराशा ही सिद्ध हुई। शेख अब्दुल्ला और उनके साथी, जिन्हें हमने भारतीय समझा था, भारतीय नहीं बन पाए। वे स्वत: को कश्मीरी ही समझते हैं और उससे ऊपर उठने को तैयार नहीं।
धीरे-धीरे जब यह प्रकट होने लगा कि शेख अब्दुल्ला कश्मीर को भारत में पूरी तरह नहीं मिलाना चाहते हैं तो भारत में उनके विरुद्ध जनमत ने जोर पकड़ा। यहाँ तक कि रणवीर सिंह पुरा में स्वतंत्र कश्मीर का प्रस्ताव करते हुए जो भाषण शेख अब्दुल्ला ने दिया, उसकी निंदा पं. नेहरू ने भी की। उनके मंसूबों के इस प्रकार साफ प्रकट होने पर भारत सरकार ने उन्हें बुलाया और यह जानना चाहा कि आखिर वे कश्मीर का कौन सा अंतिम स्वरूप रखना चाहते हैं। छोटे-छोटे मामलों में चाहे कश्मीर में भिन्न प्रकार का शासन हो, किंतु भारतीय संविधान के कुछ भाग जैसे नागरिकता, मौलिक अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय, वित्तीय एकीकरण, निर्वाचन, प्रधान के संकटकालीन अधिकार आदि तो सभी जगह पर समान रूप से लागू होने चाहिए। फलत: जुलाई 1952 में नेहरूजी तथा शेख अब्दुल्ला के बीच बातचीत हुई जिसके अनुसार उपर्युक्त सभी विषयों को किसी-न-किसी अंश में कश्मीर पर लागू करने का निर्णय हुआ। इस जुलाई समझौते को उस समय नेहरूजी ने बहुत संतोषजनक बताया था क्योंकि उन्होंने सोचा था कि इस प्रकार भारत का संविधान पूरी तरह नहीं तो कम-से-कम कुछ अंशों में तो कश्मीर पर अवश्य लागू हो जाएगा। किंतु राजनीतिक दृष्टि से यह समझौता भारी भूल हुई क्योंकि इसमें कश्मीर की एक स्वतंत्र सत्ता किसी-न-किसी रूप में मान ली गई। अभी तक जो अनिश्चित थी वह निश्चित हो गई। और उसका लाभ शेख अब्दुल्ला ने 'अंगुली के बाद पहुंचा पकड़ने' की नीति के अनुसार उठाया है।
अब्दुल्ला की इस नीति को समझने के पूर्व हमें कश्मीर राज्य के लिए वहाँ की संविधान समिति द्वारा प्रस्तुत संविधान के प्रारूप का थोड़ा सा दिग्दर्शन करना पड़ेगा
  1. प्रारूप के अनुसार जम्मू और कश्मीर राज्य भारत की एक स्वायत्त संबद्ध इकाई ((Autonomous Federated Unit) होगा और वह सर्वप्रभुता संपन्न राज्य रहेगा। उसकी वैधानिक, प्रशासनिक तथा न्यायिक शक्तियों का स्रोत न तो भारत की जनता या संविधान है बल्कि कश्मीर की जनता और उसका अपना संविधान है।
  2. प्रारूप का भाग 2 नागरिकता से संबंध रखता है जिसके अनुसार 'स्थायी निवासी' की संज्ञा देकर कश्मीरवासियों को भारत के नागरिकों से भिन्न नागरिकता प्रदान की गई है।
  3. भाग 3 मूलभूत अधिकारों से संबंध रखता है जिसमें भारतीय संविधान के भाग 3 के सभी मूलभूत अधिकार सम्मिलित कर लिए गए हैं। किंतु भूमि सुधारों के लिए मुआवजे आदि से बचत का मार्ग भी निकाल लिया है। कश्मीर में स्थायी संपत्ति खरीदने अथवा नौकरियों में स्थान प्राप्त करने का अधिकार केवल कश्मीर के 'स्थायी निवासियों' को ही दिया गया है। मौलिक अधिकारों के साथ भारतीय संविधान से भिन्न और संभवतया किसी भी संविधान की दृष्टि से नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों का समावेश भी किया है जिसके अनुसार एक सेकुलर प्रजातंत्रीय राज्य का निर्माण करने के लिए प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि (क) वह जातीय तथा सांप्रदायिक एकता स्थापित करें, (ख) सभी सार्वजनिक कार्यों में प्रामाणिकता का परिचय दें, (ग) अपने व्यवहार में गौरव, शालीनता और उत्तरदायित्व को प्रकट करें, (घ) किसी भी सार्वजनिक संस्था में सोच समझकर तथा ईमानदारी से वोट दें, (च) सांप्रदायिक विद्वेष का प्रचार न करें, (छ) चोर-बाजारी और मुनाफाखोरी या इसी प्रकार के समाज विरोधी काम न करें। उपर्युक्त कर्तव्यों का पालन न करनेवालों को मताधिकार से वंचित किया जा सकेगा।
  4. भाग 4 जम्मू और कश्मीर राज्य के प्रमुख, जो सदरे रियासत कहलाएगा के निर्वाचन, कर्तव्य आदि का वर्णन करता है। केवल स्थायी नागरिक ही सदरे रियासत चुने जा सकेंगे। सदरे रियासत को 'खुदा' का नाम लेकर, चाहे वह नास्तिक ही क्यों न हो, शपथ ग्रहण करनी पड़ेगी। सदरे रियासत भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा और उनकी प्रसादावधि तक पदारूढ़ रहेगा किंतु उसकी नियुक्ति कश्मीर की राष्ट्रीय सभा दोषारोपण (Impeachment) कर उसे हटा भी सकती है। भारत के राष्ट्रपति को तो राष्ट्रीय सभा के निर्णयों पर मुहर लगाने मात्र का अधिकार है। यदि मुहर नहीं लगाई तो क्या परिणाम होगा, यह भविष्य के लिए छोड़ दिया गया है।
  5. कश्मीर का शासन-कार्य एक मंत्री परिषद् के द्वारा होगा जो सामूहिक रूप से राष्ट्रीय सभा के प्रति उत्तरदायी होगी। मंत्री परिषद् प्रधानमंत्री की इच्छा के अनुसार सदरे रियासत द्वारा नियुक्त की जाएगी और उसकी इच्छा के अनुसार ही एक या अधिक मंत्री हटाए भी जा सकते हैं।
  6. राष्ट्रीय महासभा कश्मीर की विधान परिषद् होगी जोकि प्रति चालीस हजार निवासियों के ऊपर एक सदस्य के आधार पर चुनी जाएगी। केवल जम्मू प्रांत में हरिजनों के लिए पाँच वर्ष के लिए चार स्थान सुरक्षित रहेंगे। कश्मीर के नागरिक भारत के नागरिकों से अधिक समझदार है इसलिए उन्हें उठारह वर्ष की उम्र में ही मताधिकार प्राप्त हो जाएगा। मतदाताओं को अपने प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार (Recall) दिया है। महासभा का सब कार्य उर्दू में होगा। अध्यक्ष यदि चाहे तो किसी भी सदस्य को अंग्रेजी में और यदि वह अंग्रेजी भी नहीं बोल सकता तो मातृभाषा में बोलने की अनुमति दे सकता है।
  7. भाग 6 न्याय विधान से संबद्ध है। इसके अनुसार कश्मीर राज्य का अंतिम और सर्वोच्च न्यायालय दीवानी, फौजदारी आदि सभी मामलों के लिए एक न्याय मंडल (Judicial Board) होगा। यह न्याय मंडल सदरे रियासत के द्वारा प्रधानमंत्री की सहमति से नियुक्त किया जाएगा। न्याय मंडल के अतिरिक्त एक हाई कोर्ट भी होगा, जिसकी बैठके जम्मू और श्रीनगर में होंगी। मूलभूत अधिकारों के संबंध में आदेश आदि देने का अधिकार दोनों न्यायालयों को होगा। मौलिक अधिकारों के संबंध में कोई भी नागरिक भारत सुप्रीम कोर्ट में भी आवेदन कर सकता है किंतु सुप्रीम कोर्ट में कश्मीर के और किसी भी विषय पर अपील नहीं की जा सकेगी।
  8. भाग 7 प्रधानाकेक्षक की नियुक्ति के संबंध में है। भारत के प्रधानाकेक्षक को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं रहेंगे।
  9. भाग 8 भारत और कश्मीर के संबंधों की विवेचना करता है। यह संबंध तीन अनुसूचियों में वर्णित है जिसमें प्रथम अनुसूची वे विषय सम्मिलित हैं, जिनका संबंध रक्षा, विदेश नीति और यातायात से है। इन विषयों पर विधान बनाने का अधिकार भारतीय संसद को होगा। इसके साथ ही एक और अनुसूची दी गई है जिसमें वे विषय सम्मिलित हैं जो सम्मिलिन पत्र के अनुसार तो भारतीय संसद के अधिकार क्षेत्र में हैं किंतु जिनमें परिवर्तनों की माँग की गई है। इसमें ध्यान देने योग्य यह है (क) भारतीय संसद में कश्मीर के प्रतिनिधि जनता द्वारा चुने हुए नहीं होंगे वरन् वहाँ की सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होंगे। (ख) कोई भी संधि जो भारत का विदेशमंत्री दूसरे देशों के साथ करे और जिसमें जम्मू और कश्मीर राज्य का किसी भी प्रकार संबंध आए, वह कश्मीर की सरकार की सहमति के बिना नहीं हो सकेगी और भारतीय संसद को उस संधि को व्यावहारिक रूप देने के संबंध में कोई भी कानून बनाने का अधिकार न होगा। (ग) भारतीय संसद के अध्यक्ष कश्मीर के किसी भी संसदीय सदस्य को उसकी मातृभाषा में भाषण करने की अनुमति नहीं दे सकेंगे। वह भाषण वहाँ की राजकीय भाषा अर्थात् उर्दू में ही हो सकता है। (घ) भारत के सुप्रीम कोर्ट को विभिन्न राज्यों एवं राज्य और संघ सरकार के बीच उत्पन्न सभी विवादों के लिए मूल न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं किंतु वह न तो कश्मीर के संविधान के संबंध में और न उन विषयों के संबंध में, जिनके लिए भारतीय संसद को कश्मीर के लिए कानून बनाने का अधिकार नहीं, अपने अधिकारों का उपयोग कर सकेगा। (च) यदि किसी विषय पर भारत और कश्मीर दोनों ने नियम बनाए हैं और वे परस्पर विरोधी हैं तो जहाँ अन्य राज्यों में राज्य के नियम के ऊपर संघीय नियम को मान्यता होती है, वहाँ कश्मीर में राज्य के अपने नियम को ही मान्यता रहेगी। (छ) भारत को यद्यपि यातायात में सभी अधिकार प्राप्त हैं किंतु भारत का राष्ट्रपति किसी भी मार्ग को कश्मीर सरकार की सम्मति के बिना राष्ट्रीय या सैनिक महत्त्व का घोषित नहीं कर सकता। (ज) कश्मीर राज्य चाहे तो राज्य की पुरानी सेनाओं को रख तथा बढ़ा सकता है। यदि उनका भारतीय सेनाओं के साथ किसी भी प्रकार से एकीकरण किया जाए तो वह कश्मीर सरकार की सम्मति से ही हो सकेगा। कोई भी सेना का अंग, जो भारतीय सेना के साथ अभी तक संबद्ध नहीं हुआ है, भारतीय सेना का अंग नहीं समझा जाएगा और उनपर राज्य का ही अधिकार रहेगा। (झ) भारत यदि नागरिकता के संबंध में कोई कानून बनाता है तो वह कश्मीर की विधानसभा की सहमति के बिना उस राज्य पर लागू नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार वे सब लोग जो जम्मू और कश्मीर राज्य से सन् 1947 के झगड़ों के कारण पाकिस्तान (भारत नहीं) चले गए हैं, वे सब वापस आने पर नागरिक माने जाएँगे। (त) भारत यदि राज्य कर्मचारियों के लिए कोई संयुक्त जनसेवा आयोग बनाना चाहे तो उसे कश्मीर सरकार की पूर्व सम्मति प्राप्त करना आवश्यक होगा। (थ) भारत के राष्ट्रपति को जम्मू और कश्मीर राज्य में आंतरिक दुर्व्यवस्था होने पर तब तक संकटकालीन स्थिति की घोषणा करने का अधिकार प्राप्त नहीं जब तक वहाँ की सरकार प्रार्थना न करे। युद्ध जन्य संकटकालीन स्थिति की घोषणा करने पर भी संघ सरकार जम्मू और कश्मीर राज्य को वही निर्देश दे सकती है, जो राज्य के प्रशासनिक मामलों में किसी प्रकार का दखल न दे। इसी प्रकार भारतीय संसद ऐसे समय में भी बिना कश्मीर की विधानसभा अथवा वहाँ की सरकार की सहमति के कोई कानून नहीं बना सकती।
    कश्मीर सरकार ने अपने व्यापारी प्रतिनिधि देश-विदेशों में रखने और किसी भी प्रकार के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में, जिनमें व्यापार आदि की बातें हों, भाग लेने का अधिकार सुरक्षित रखा है।
    भारत की सुरक्षा के लिए तैयारी करने संबंधी नियम बनाने का अधिकार यद्यपि संघीय अनुसूची की प्रथम सूची के अनुसार भारत को स्वत: प्राप्त है, किंतु कश्मीर में उसके लिए कश्मीरी विधानसभा की स्वीकृति आवश्यक है। संघीय सूची में से विषय क्रमांक 7 (संसद द्वारा सुरक्षा अथवा युद्ध के लिए आवश्यक घोषित उद्योग), क्रमांक 8 (केंद्रीय सूचना तथा चर विभाग), क्रमांक 9 (सुरक्षा, वैदेशिक मामले और भारत की सुस्थिति से संबंधित निवारक निरोध अधिनियिम) को कश्मीर राज्य ने भारतीय संसद के अधिकार क्षेत्र से निकाल लिया है।

    रेल पथ यद्यपि संघीय विषय है किंतु यदि कश्मीर सरकार राज्य में कोई रेल बनाए या किसी कंपनी से बनवाएँ तो वह केंद्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर होगी।
    मुद्रा, बैंकिंग, पोस्ट आफिस आदि में केंद्र को कोई अधिकार नहीं रहेगा। जनगणना के लिए कश्मीर राज्य भारत की जनगणना से संबंध नहीं रखेगा और न उसका किसी प्रकार सर्वेक्षण विभाग से कोई संबंध रहेगा। चुनाव आयोग का अधिकार-क्षेत्र केवल राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन तक ही रहेगा।
  10. भारत का कश्मीर के साथ किसी भी प्रकार वित्तीय एकीकरण नहीं होगा। वहाँ भारत कोई कर नहीं लगा सकता।
  11. भाग 9 के अनुसार प्रधानमंत्री की सलाह से सदरे रियासत एक जनसेवा आयोग नियुक्त करेगा। चुनाव कमीशन सदरे रियासत द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह से नियुक्त होगा। भाग 11 उर्दू को राजभाषा स्वीकार करता है। प्रारंभिक शिक्षा के लिए कोई भी जिला कौंसिल किसी भी अनुसूचित भाषा को स्वीकार कर सकती है। भाग 12 में विविध प्राविधान दिए हैं जिनमें संकटकालीन स्थिति की अवस्था में प्रधानमंत्री की सलाह से सदरे रियासत घोषणा कर सकता है कि किसी भी न्यायालय को मौलिक अधिकारों के संबंध में विचार करने का अधिकार नहीं रहेगा।
  12. राज्य का झंडा तीन सफेद खड़ी पहियों और हल के साथ लाल रंग का रहेगा।
  13. भाग 13 के अनुसार कश्मीर एक संघ राज्य माना गया है जिसके पाँच अंग होंगे(क) कश्मीर : अनंतनाग, श्रीनगर, बारामूला जिलों सहित, (ख) पूंछ : मीरपुर, पूंछ, रजौरी और मुजफ्फराबाद जिलों सहित, (ग) जम्मू : जम्मू, कठुआ, ऊधमपुर और डोडा जिलों सहित, (घ) लद्दाख : लेह, कारगिल और अस्कारदू सहित, (च) गिलगित : गिलगित तहसील और दुंजी सहित। कश्मीर, पूंछ और जम्मू प्रांत का शासन एक चीफ कमिश्नर के अधीन होगा जिसकी नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह से सदरे रियासत करेंगे। चीफ कमिश्नर प्रांत के प्रशासन का प्रमुख रहेगा और वह राज्य सरकार के प्रति उत्तरदायी होगा। प्रत्येक चीफ कमिश्नर के अधीन मंत्री परिषद् होगी जो प्रांतीय अनुसूची में वर्णित विषयों के संबंध में उसे सलाह देगी। मंत्री परिषद् प्रांतीय विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी। विधानसभा का निर्वाचन प्रति साठ हजार निवासियों पर एक सदस्य के हिसाब से होगा। मतदाताओं को अपने प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार होगा। प्रांतीय विधानसभा को प्रांत का बजट स्वीकार करने का भी अधिकार है जो बाद में राज्य के बजट के साथ सम्मिलित कर लिया जाएगा। लद्दाख और गिलगित के प्रदेशों के लिए एक रीजनल कमिश्नर नियुक्त होगा। उसको सलाह देने के प्रति दस हजार निवासियों पर एक सदस्य के हिसाब से एक प्रादेशिक समिति निर्वाचित होगी। यह समिति सलाहकार समिति के रूप में काम करेगी। कश्मीर, पूंछ और जम्मू प्रांत के प्रत्येक जिले की एक जिला समिति होगी जिसका निर्वाचन बीस हजार निवासियों पर एक सदस्य के हिसाब से होगा। जिला समिति डिप्टी कमिश्नर की सलाहकार समिति के रूप में काम करेगी तथा जो प्रस्ताव वह चाहे पास करके राज्य या प्रांतीय सरकार के पास सिफारिश के रूप में भेज सकती है। राज्य विधानसभा नया जिला या प्रांत बना सकती है, उन्हें घटा-बढ़ा सकती है। उनकी सीमाएँ बदल सकती है। गिलगित और मीरपुर, मुजफ्फराबाद, कश्मीर में मिलने तक राज्य संघ की केवल तीन ही इकाइयाँ होंगी -कश्मीर और जम्मू प्रांत तथा लद्दाख का जिला। तब तक सभी जिला कौंसिल में एक तिहाई सदस्य सरकार द्वारा नामजद रहेंगे। प्रत्येक जिला कौंसिल अपनी कार्यपालिका निर्वाचित करेगी जो सलाहकार समिति के रूप में काम करेगी। कोई भी जिला एक प्रस्ताव द्वारा तीन वर्ष के बाद निर्णय कर सकता है कि वह एक प्रांत से दूसरे प्रांत में जाएगा अथवा सीधा राज्य सरकार से प्रशासित हों। राज्य सरकार भी एक आयोग की रिपोर्ट के बाद किसी भी जिले या प्रांत की सीमाएँ बदल सकती हैं।
  14. भाग 16 के अनुसार संविधान में संशोधन राष्ट्रीय महासभा के दो तिहाई बहुमत से किया जा सकता है किंतु प्रांतीय विधानसभाओं के अधिकार और कार्यों से संबंधित संशोधन उन विधानसभाओं के दो तिहाई सदस्यों द्वारा पारित होने पर ही स्वीकृत होंगे।
    यह विधान भारतीय संविधान से पृथक् होने के कारण भारत की मौलिक एकता के लिए घातक तो है ही, किंतु स्वयं भी अनेक दृष्टियों से आपत्तिजनक है। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों को कश्मीर पर लागू करने के बजाय कश्मीर के संविधान में ही मौलिक अधिकारों का भाग जोड़ना प्रकट करता है कि कश्मीर-राज्य भारत का अविभाज्य अंग नहीं बल्कि एक नए पाकिस्तान के रूप में बना हुआ है। अंतर यही है कि उसकी रक्षा की जिम्मेदारी हमारी है और शेख अब्दुल्ला लियाकत अली के समान भारत को घूंसा न दिखाकर मुहम्मद अली के समान नेहरूजी को बड़ा भाई कह देते हैं। चाहिए तो यह था कि भारतीय संविधान के वे सभी भाग जिनके संबंध में जुलाई 1952 में विचार हो चुका है, जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू कर दिए जाते और उस राज्य के लिए यदि कोई विशेष प्रबंध करने की आवश्यकता है तो भारतीय संसद में तत्संबंधी संवैधानिक संशोधन पारित कर दिया जाता किंतु शेख साहब ने तो जुलाई समझौते को भी ठुकरा दिया है। हाँ, इस प्रारूप से जम्मू प्रजा परिषद् की माँगों को स्वीकार करने का दिखावा अवश्य किया गया है। क्योंकि (क) जम्मू को प्रांतीय स्वायत्त सत्ता दी गई है, यद्यपि उस सत्ता का अधिकार क्षेत्र भारत की किसी नगरपालिका से भी गया बीता है। (ख) डोडा जिले को जम्मू से अलग नहीं किया गया, यद्यपि भविष्य में उसको अलग करने के बीज जरूर बो दिए गए हैं। हम समझते हैं कि चालीस लाख लोगों के एक छोटे से राज्य का संघीय विधान बनाना और फिर उसका भारत संघ के साथ केवल तीन मामलों में संबंध करना एक ऐसा प्रयोग है जो दुनिया के अन्य किसी भाग में देखने को नहीं मिलता। भारत की आत्मा को एकता चाहती है और इसीलिए अंग्रेजों की तमाम कोशिशों के बाद भी हमने सन् 1935 के संविधान के फैडरेशन वाले भाग को स्वीकार नहीं किया तथा स्वतंत्र होने के बाद भी जो विधान बनाया उसके ऊपर यद्यपि फैडरेशन की कुछ छाप रही परंतु हमने तो भी उसे एकत्व का जामा पहनाने का प्रयत्न किया और भारत को एक 'फैडरेशन ऑफ स्टेट्स' के स्थान पर 'यूनियन ऑफ स्टेट्स' बनाया। हमारे संविधान के अनुसार हमारी संपूर्ण जनता की शक्ति हमारी केंद्र सरकार में निहित है। प्रांतों को वही शक्ति प्राप्त है जो केंद्र देता है और अवशेष प्रभुता केंद्र को प्राप्त है किंतु कश्मीर में चक्र उलटा चला जा रहा है। क्या इसके बाद भी हम यह समझें कि शेख अब्दुल्ला ने राष्ट्रवादी मनोवृत्ति का परिचय दिया है। सच तो यह है कि लौह पुरुष सरदार पटेल के निधन, नेहरूजी की संतुष्टीकरण की नीति और संयुक्त राष्ट्रसंघ में कश्मीर के प्रश्न की उपस्थिति से उत्पन्न परिस्थिति का अनुचित लाभ उठाकर, जो कभी भी राष्ट्र भक्तिपूर्ण नहीं हो सकता, शेख अब्दुल्ला एक तीसरे राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं। सत्य प्रकट हो गया है, अब यह भारत की जनता को निर्णय करना है कि वह उस सत्य का मुकाबला करती है अथवा ऑंखें बंद कर सत्य को देखने से इनकार करती है।